Tuesday 29 September 2015

विश्व के विचित्र जीव-जंतु (vishwa ke vichitra jeev-jantu)


विश्व प्रसिद्ध श्रृंखला का एक और मोती

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Sunday 27 September 2015

Vishwa ki Prasiddh Aatank Kathayen (विश्व की प्रसिद्ध आतंक कथाएं)

Vishwa Prasiddh Khojen (विश्व प्रसिद्ध खोजें)



विश्व प्रसिद्ध श्रृंखला का एक और मोती

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संसार की प्राचीन कहानियां- रांगेय राघव




विश्व की प्राचीनतम कहानियों का संग्रह (sansar ki prachin kahaniya)

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प्रेम पूर्णिमा- प्रेमचंद




मुन्शी प्रेमचन्द एक व्यक्ति तो थे ही, एक समाज भी थे, एक देश भी थे व्यक्ति समाज और देश तीनों उनके हृदय में थे। उन्होंने बड़ी गहराई के साथ तीनों की समस्याओं का माध्यम किया था। प्रेमचन्द हर व्यक्ति की, पूरे समाज की और देश की समस्याओं को सुलझाना चाहते थे, पर हिंसा से नहीं, विद्रोह से नहीं, अशक्ति से नहीं और अनेकता से भी नहीं। वे समस्या को सुलझाना चाहते थे प्रेम से, अहिंसा से, शान्ति से, सौहार्द से, एकता से और बन्धुता से। प्रेमचन्द आदर्श का झण्डा हाथ में लेकर प्रेम एकता, बन्धुता, सौहार्द और अहिंसा के प्रचार में जीवन पर्यन्त लगे रहे। उनकी रचनाओं में उनकी ये ही विशेषतायें है।


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Saturday 26 September 2015

प्रेम पंचमी- प्रेमचंद


प्रेमचंद साहित्य का एक और मोती।
कहानी संग्रह


   

Lajja - Taslima Nasrin



लज्जा तसलीमा नसरीन द्वारा रचित एक बंगला उपन्यास है। यह उपन्यास पहली बार १९९३ में प्रकाशित हुआ था और कट्टरपन्थी मुसलमानों के विरोध के कारण बांगलादेश में लगभग छः महीने के बाद ही इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इस अवधि में इसकी लगभग पचास हजार प्रतियाँ बिक गयीं।

‘लज्जा’ की शुरुआत होती है 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़े जाने पर बांग्लादेश के मुसलमानों की आक्रमक प्रतिक्रिया से। वे अपने हिन्दू भाई-बहनों पर टूट पड़ते हैं और उनके सैकड़ों धर्मस्थलों को नष्ट कर देते हैं। लेकिन इस अत्याचार, लूट, बलात्कार और मन्दिर ध्वंस के लिए वस्तुतः जिम्मेदार कौन है ? कहना न होगा कि भारत के वे हिन्दूवादी संगठन जिन्होंने बाबरी मस्जिद ध्वंस का प्रतिशोध की राजनीति का खूँखार चेहरा दुनिया के सामने रखा। वे भूल गये कि जिस तरह भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं, उसी तरह पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। लेखिका ने ठीक ही पहचाना है कि ‘भारत कोई विच्छिन्न ‘जम्बूद्वीप’ नहीं है। भारत में यदि विष फोड़े का जन्म होता है, तो उसका दर्द सिर्फ भारत को ही नहीं भोगना पड़ेगा, बल्कि वह दर्द समूची दुनिया में, कम-से-कम पड़ोसी देशों में तो सबसे पहले ही फैल जाएगा।’ क्यों ? क्योंकि इस पूरे उपमहादेश की आत्मा एक है, यहाँ के नागरिकों का साझा इतिहास और एक साझा भविष्य है। अतः एक जगह की घटनाओं का असर दूसरी जगह पड़ेगा ही। अतः हम सभी को एक-दूसरे की संवेदनशीलता का खयाल रखना चाहिए और एक प्रेम तथा सौहार्दपूर्ण समाज की रचनी करनी चाहिए। ऐसे समाज में ही हिन्दू, मुसलमान तथा अन्य समुदायों के लोग सुख और शान्ति से रह सकते हैं। प्रेम घृणा से अधिक संक्रामक होता है।

नन्हा राजकुमार

मेरी पसंदीदा पुस्तकों में से एक

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Friday 25 September 2015

काजर की कोठरी - बाबू देवकीनन्दन खत्री



बाबू देवकीनन्दन खत्री (29 जून 1861 - 1 अगस्त 1913) हिंदी के प्रथम तिलिस्मी लेखक थे। उन्होने चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, काजर की कोठरी, नरेंद्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेंद्र वीर, गुप्त गोंडा, कटोरा भर, भूतनाथ जैसी रचनाएं की। 'भूतनाथ' को उनके पुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने पूरा किया। हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में उनके उपन्यास चंद्रकांता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस उपन्यास ने सबका मन मोह लिया। इस किताब का रसास्वादन के लिए कई गैर-हिंदीभाषियों ने हिंदी सीखी। बाबू देवकीनंदन खत्री ने 'तिलिस्म', 'ऐय्यार' और 'ऐय्यारी' जैसे शब्दों को हिंदीभाषियों के बीच लोकप्रिय बनाया। जितने हिन्दी पाठक उन्होंने (बाबू देवकीनन्दन खत्री ने) उत्पन्न किये उतने किसी और ग्रंथकार ने नहीं।

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Chandrakanta



चंद्रकान्ता हिन्दी के शुरुआती उपन्यासों में है जिसके लेखक देवकीनन्दन खत्री हैं। इसकी रचना १९ वीं सदी के आखिरी में हुई थी। यह उपन्यास अत्यधिक लोकप्रिय हुआ था और कहा जाता है कि इसे पढने के लिये कई लोगों ने देवनागरी सीखी थी। यह तिलिस्म और ऐयारी पर आधारित है और इसका नाम नायिका के नाम पर रखा गया है।

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देवदास - शरतचंद्र


शरत् बाबू के उपन्यासों में जिस रचना को सब से अधिक लोकप्रियता मिली है वह है देवदास। तालसोनापुर गाँव के देवदास और पार्वती बालपन से अभिन्न स्नेह सूत्रों में बँध जाते हैं, किन्तु देवदास की भीरू प्रवृत्ति और उसके माता-पिता के मिथ्या कुलाभिमान के कारण दोनों का विवाह नहीं हो पाता। दो तीन हजार रुपये मिलने की आशा में पार्वती के स्वार्थी पिता तेरह वर्षीय पार्वती को चालीस वर्षीय दुहाजू भुवन चौधरी के हाथ बेच देते हैं, जिसकी विवाहिता कन्या उम्र में पार्वती से बड़ी थी। विवाहोपरान्त पार्वती अपने पति और परिवार की पूर्णनिष्ठा व समर्पण के साथ देखभाल करती है। निष्फल प्रेम के कारण नैराश्य में डूबा देवदास मदिरा सेवन आरम्भ करता है,जिस कारण उसका स्वास्थ्य बहुत अधिक गिर जाता है। कोलकाता में चन्द्रमुखी वेश्या से देवदास के घनिष्ठ संबंध स्थापित होते हैं। देवदास के सम्पर्क में चन्द्रमुखी के अन्तर सत प्रवृत्तियाँ जाग्रत होती हैं। वह सदैव के लिए वेश्यावृत्ति का परित्याग कर अशथझूरी गाँव में रहकर समाजसेवा का व्रत लेती है। बीमारी के अन्तिम दिनों में देवदास पार्वती के ससुराल हाथीपोता पहुँचता है किन्तु देर रात होने के कारण उसके घर नहीं जाता। सवेरे तक उसके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। उसके अपरिचित शव को चाण्डाल जला देते हैं। देवदास के दुखद अन्त के बारे में सुनकर पार्वती बेहोश हो जाती है। देवदास में वंशगत भेदभाव एवं लड़की बेचने की कुप्रथा के साथ निष्फल प्रेम के करुण कहानी कही गयी है।


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Kamayani - Jayshankar Prasad




कामायनी हिंदी भाषा का एक महाकाव्य है। इसके रचयिता जयशंकर प्रसाद हैं। यह आधुनिक छायावादी युग का सर्वोत्तम और प्रतिनिधि हिंदी महाकाव्य है। 'प्रसाद' जी की यह अंतिम काव्य रचना 1936 ई. में प्रकाशित हुई, परंतु इसका प्रणयन प्राय: 7-8 वर्ष पूर्व ही प्रारंभ हो गया था। 'चिंता' से प्रारंभ कर 'आनंद' तक 15 सर्गों के इस महाकाव्य में मानव मन की विविध अंतर्वृत्तियों का क्रमिक उन्मीलन इस कौशल से किया गया है कि मानव सृष्टि के आदि से अब तक के जीवन के मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक विकास का इतिहास भी स्पष्ट हो जाता है।

कला की दृष्टि से कामायनी छायावादी काव्यकला का सर्वोत्तम प्रतीक माना जा सकता है। चित्तवृत्तियों का कथानक के पात्र के रूप में अवतरण इस काव्य की अन्यतम विशेषता है। और इस दृष्टि से लज्जा, सौंदर्य, श्रद्धा और इड़ा का मानव रूप में अवतरण हिंदी साहित्य की अनुपम निधि है।


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Thursday 24 September 2015

Dastan-e-Mulla Nasiruddin

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वह अमीरों के लिए सिरदर्द था। वह हमदर्द था भूखे-नंगे और व्यवस्था से दुखी लोगों का। वह सारे काम अपने तरीके से करता था-बिना किसी स्वार्थ के। वह मसखरा नहीं, एक फक्कड़ और नेकदिल इन्सान था। उसकी नजर में दुनिया भर में अगर कोई सबसे पाक था, तो वह था बुखारा-उसकी मातृभूमि।

दास्तान-ए-मुल्ला नसरुद्दीन

मुल्ला नसरुद्दीन का नाम जुबां पर आते ही हमारे दिल-दिमाग में एक मुस्कराता सा चेहरा उभर आता है। ज्यादातर लोग यही समझते हैं कि वह गुजरे जमाने का कोई मसखरा नहीं बल्कि एक फक्कड़ शख्स था, जो बुखारा की उस समय की अन्यायपूर्ण व्यवस्था का सबसे प्रबल विरोधी था।
वह सिरदर्द था अमीरों का क्योंकि वह अन्याय के खिलाफ लोगों में जागृति पैदा कर रहा था। वह दुश्मन था सूदखोरों का, जो जोंक की भांति गरीब रिआया का खून चूस रहे थे।
वह निःस्वार्थ परोपकारी था। अमीरों, सूदखोरों और भ्रष्ट राजदरबारियों को कंगाल करके वह उस दौलत को गरीबों में बांट दिया करता था।

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Samudra Me Khoya Hua Aadmi - Kamleshwar



कमलेश्वर जी ने अपने उपन्यासों में नारी के विविध रूपों को अभिव्यक्ति  दी है।  वे नारी जीवन के चितेरे ही नहीं उसके पक्षधर भी हैं।  उनके  उपन्यासों की   अधिकतर नारियां शिक्षित हैं जो कि समय-समय पर अपने शिक्षित होने का प्रमाण देती हैं।  'काली आंधी' की मालती, 'तीसरा आदमी' की चित्रा, 'कितने पाकिस्तान' की सलमा, ' सुबह-दोपहर-शाम' की शांता, 'समुद्र में खोया हुआ आदमी' की तारा  'वही बात' की समीरा,  'अनबीता व्यतीत' की समीरा आदि ऐसी स्त्री पात्र हैं जिन्होंने अपने जीवन से सम्बंधित ठोस कदम उठाए हैं।  इन सभी आधुनिक नारियों ने नारी स्वतंत्रता का बिगुल बजाकर नारी जीवन को एक नया और स्वतंत्र  धरातल प्रदान किया है।

'समुद्र में खोया हुआ आदमी'  के पात्र  श्यामलाल के बेरोजगार होने पर उनकी पुत्री तारा चालीस रूपये माहवार पर हरबंस के 'पैटर्न  हाउस' में नौकरी करके अपने परिवार को आर्थिक संकट से बचा लेती है श्यामलाल के पिता को लगने लगता है,  'जैसे  घर को सिर्फ चालीस  रूपये माहवार  की जरूरत  थी....इतने से रूपयों की कमी के कारण पूरा घर रुका -रुका सा लगता था ।'९  तारा घर खर्च चलने के साथ -साथ अपने छोटे भाई-बहिन  की शिक्षा पर भी खर्च करती है ।वह अपनी बहन को नर्सिंग कोर्स के लिए भर्ती  करवाती है।  उसका मानना है "आजकल नर्सों की बहुत मांग  है।  पास करते ही कहीं न कहीं नौकरी चट से मिल जाएगी ।"१०  वह अपने भाई और बहन को अपने पैरों पर खड़ा करना चाहती है।  इतना ही नहीं वह अपने हमउम्र  लड़के हरबंस से प्यार करके बिना दान दहेज़ के विवाह भी कर लेती है।  वह  बेटी के रूप में बोझ नहीं बल्कि शुरू से लेकर अंत तक वह उनका सहारा बनी हुई नजर आती है।

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Prem Dwadashi



मुंशी प्रेमचंद की प्रेम कड़ी का ऐतिहासिक कहानी संग्रह

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Vishwa Prasidh Baal Kahaniyan

Wednesday 23 September 2015

Jaadu ki Sarkar




"जादू की सरकार" हिन्दी के अप्रितम और अविस्मरणीय व्यंग्यकार शरद जोशी के उन अप्रकाशित व्यंग्य-लेखों का संकलन है जो उनके जीवन काल में पुस्तक का रूप नहीं ले पाए थे। रोज़मर्रा के जीवन-संदर्भों को आधार बनाकर लिखे गए इन लेखों में चुभन भी है और गुदगुदाहट भी। इनमें देश की शासन-व्यवस्था की ख़ामियों पर व्यंग्य है, सामाजिक-आर्थिक जीवन की विसंगतियों पर व्यंग्य है और है आम लोगों की जिंदगी से जुड़ी समस्याओं के दल के लिए की जा रही तमाम नाकाम कोशीशों पर व्यंग्य। व्यंग्यकार ने किसी भी दोष को अनदेखा नहीं किया, न ही किसी घाव या विकृति को ढंकने की कोशिश की है। उनके व्यंग्य सीधे चोट नहीं करते बल्कि अंतर्मन को झकझोरते हैं और सोते हुए से जाग उठने का अहसास कराते हैं।

'जादू की सरकार' में शरद जोशी ने समाज की सड़न को इस रूप में अनावृत्त किया है कि वह चुभती भी है और गुदगुदाती भी है। -रांची एक्सप्रेस

"दैनिक जीवन की छोटी-से-छोटी किन्तु महत्वपूर्ण समस्या पर जिस बारीकि से इन व्यंग्य में अभिव्यक्ति मिली है वह अन्यत्र मिलाना कठिन है"।


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विश्व प्रसिद्ध रोमांचक कारनामे

अमृत्सागर (Amritsagar) आयुर्वेदिक पुस्तक

झील के उस पार- गुलशन नंदा



‘झील के उस पार’ वह उपन्यास था जिसका हिन्दी पुस्तक प्रकाशन के इतिहास में शायद ही इससे पहले इतना जबर्दस्त प्रोमोशन हुआ हो। देश भर के अखबारों, पत्रिकाओं, रेडियो पर प्रचार के अलावा होटल, पान की दुकान से लेकर सिनेमाघरों तक प्रचार किया गया। प्रचार में इस बात का भी खुलासा किया गया कि पहली बार हिन्दी में किसी पुस्तक का पहला एडीशन ही पांच लाख कापी का छापा गया है।

गुलशन नंदा हिन्दी में लुगदी साहित्य के सबसे ज़्यादा बिकने वाले लेखक रहे।  वे  60 से लेकर 80 के दशक तक, की दर्जनों सिल्वर जुबिली, गोल्डन जुबिली फिल्मों के लेखक थे। हिन्दी साहित्यकारों के बीच एक उपेक्षत नाम और उस दौर की युवा पीढ़ी के लिए आराध्य एवं आदर्श लेखक गुलशन नंदा के अनेक बहुचर्चित उपन्यास थे-  जलती चट्टान, नीलकंठ, घाट का पत्थर, गेलार्ड, झील के उस पार, पालेखां आदि।

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Monday 21 September 2015

अभ्युदय (Abhyudaya) - नरेंद्र कोहली




‘अभ्युदय’ रामकथा पर आधारित हिन्दी का पहला और महत्वपूर्ण उपन्यास है। ‘दीक्षा’, ‘अवसर’, ‘संघर्ष की ओर’ तथा ‘युद्ध’ अनेक सजिल्द, अजिल्द तथा पॉकेटबुक संस्करण प्रकाशित होकर अपनी महत्ता एवं लोकप्रियता प्रमाणित कर चुके हैं। महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में इसका धारावाहिक प्रकाशन हुआ है। उड़िया, कन्नड़, मलयालम, नेपाली, मराठी तथा अंग्रेजी से इसके विभिन्न खण्डों के अनुवाद प्रकाशित होकर प्रशंसा पा चुके हैं। इसके विभिन्न प्रसंगो के नाट्य रूपान्तर मंच पर अपनी क्षमता प्रदर्शित कर चुके हैं तथा परम्परागत रामलीला मण्डलियाँ इसकी ओर से आकृष्ट हो रही हैं। यह प्राचीनता तथा नवीनता का अद्भुत संगम है। इसे पढ़कर आप अनुभव करेंगे कि आप पहली बार ऐसी रामकथा पढ़ रहे हैं, जो सामयिक, लौकिक, तर्कसंगत तथा प्रासंगिक है। यह किसी अपरिचित और अद्भुत देश तथा काल की कथा नहीं है। यह इसी लोक और काल की, आपके जीवन से सम्बन्धित समस्याओं पर केन्द्रित एक ऐसी कथा है, जो सर्वकालिक और शाश्वत है और प्रत्येक युग के व्यक्ति का इसके साथ पूर्ण तादाम्य होता है। ‘अभ्युदय’ प्रख्यात कथा पर आधृत अवश्य है ; किन्तु यह सर्वथा मौलिक उपन्यास है, जिसमें न कुछ अलौकिक है, न अतिप्राकृतिक। यह आपके जीवन और समाज का दर्पण है। पिछले पच्चीस वर्षों में इस कृति ने भारतीय साहित्य में अपना जो स्थान बनाया है, हमें पूर्ण विश्वास है कि वह क्रमशः स्फीत होता जायगा, और बहुत शीघ्र ही ‘अभ्युदय’ कालजयी क्लासिक के रूप में अपना वास्तविक महत्व तथा गौरव प्राप्त कर लेगा।

दीक्षा
(1)

समाचार सुना और विश्वामित्र एकदम क्षुब्ध हो उठे। उनकी आँखें, ललाट-क्षोभ में लाल हो गए। क्षणभर समाचार लाने वाले शिष्य पुनर्वसु को बेध्याने घूरते रहे; और सहसा उनके नेत्र झुककर पृथ्वी पर टिक गए। अस्फुट-से स्वर में उन्होंने कहा, ‘‘असह्य!’’

शब्द के अच्चारण के साथ ही उनका शरीर सक्रिय हो उठा। झटके से उठकर वे खड़े हो गए, ‘‘मार्ग दिखाओ, वत्स !’’
पुरर्वसु पहले ही स्तंभित था, गुरु की प्रतिक्रिया देखकर जड़ हो चुका था; सहसा यह आज्ञा सुनकर जैसे जाग पड़ा और अटपटी-सी चाल चलता हुआ, गुरु के आगे-आगे कुटिया से बाहर निकल गया।

विश्वामित्र झपटते हुए-से पुनर्वसु के पीछे चल पड़े।
मार्ग में जहाँ-तहाँ आश्रमवासियों के त्रस्त चेहरे देखकर विश्वामित्र का उद्वेग बढ़ता गया। आश्रमवासी गुरु को आते देख, मार्ग से एक ओर हट, नतमस्तक खड़े हो जाते थे। और उनका इस प्रकार निरीह-कतार होना, गुरु को और अधिक पीड़ित कर जाता था: ‘ये सब लोग मेरे आश्रित हैं। ये मुझ पर विश्वास कर यहाँ आए हैं। इनकी व्यवस्था और रक्षा मेरा कर्त्तव्य है। और मैंने इन सब लोगों को इतना असुरक्षित रख छोड़ा है। इनकी सुरक्षा का प्रबंध...’
आश्रमवासियों की भीड़ में दरार पैदा हो गई। उस मार्ग से प्रविष्ट हो, विश्वामित्र वृत्त के केंद्र के पास पहुँच गए। उनके उस कठोर शुष्क चेहरे पर भी दया, करुणा, पीड़ा, उद्वेग, क्षोभ, क्रोध, विवशता जैसे अनेक भाव पुँजीभूत हो, कुंडली मारकर बैठ गए थे।

उनके पैरों के पास, भूमि पर नक्षत्र का मृत शरीर चित पड़ा था। इस समय यह पहचानना कठिन था कि शरीर किसका है। शरीर के विभिन्न मांसल अंगों की त्वचा फाड़कर मांस नोच लिया गया था, जैसे रजाई फाड़कर गूदड़ नोच लिया गया हो। कहीं केवल घायल त्वचा थी, कहीं त्वचा के भीतर से नंगा मांस झाँक रहा था, जिस पर रक्त जमकर ठण्डा और काला हो चुका था; और कहीं-कहीं मांस इतना अधिक नोच लिया गया था कि मांस के मध्य की हड्डी की श्वेतता मांस की ललाई के भीतर से भासित हो रही थी। शरीर की विभिन्न मांसपेशियाँ टूटी हुई रस्सियों के समान जहाँ-तहाँ उलझी हुई थीं। चेहरा जगह-जगह से इतना नोचा-खसोटा गया था कि कोई भी अंग पहचान पाना कठिन था।

विश्वामित्र का मन हुआ कि वे अपनी आँखें फेर लें। पर आँखें थीं कि नक्षत्र के क्षत-विक्षत चेहरे से चिपक गई थीं और नक्षत्र की भयविदीर्ण मृत पुतलियाँ कहीं उनके मन में जलती लौह शलाकाऔं के समान चुभ गई थीं, अब वे न अपनी आँखें फेर सकेंगे और न उन्हें मूँद ही सकेंगे। बहुत दिनों तक उन्होंने अपनी आँखें मूँदे रखीं थीं-अब वे और अधिक उपेक्षा नहीं कर सकते। कोई-न-कोई व्यवस्था उन्हें करनी पड़ेगी...
‘‘यह कैसे हुआ, वत्स ?’’ उन्होंने पुनर्वसु से पूछा।
‘‘गुरुदेव ! पूरी सूचना तो सुकंठ से ही मिल सकेगी। सुकंठ नक्षत्र के साथ था।’’
‘‘मुझे सुकंठ के पास ले चलो।’’

जाने से पहले विश्वामित्र आश्रमवासियों की भीड़ की ओर उन्मुख हुए, ‘‘व्याकुल मत होओ, तपस्वीगण। राक्षसों को उचित उचित दण्ड देने की व्यवस्था मैं शीघ्र करूँगा। नक्षत्र के शब का उचित प्रबंध कर मुझे सूचना दो।’’
वे पुनर्वसु के पीछे चले जा रहे थे, ‘‘जब कभी भी मैं किसी नए प्रयोग के लिए यज्ञ आरंभ करता हूं, ये राक्षस मेरे आश्रम के साथ इसी प्रकार


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ठेले पर हिमालय (Thele Par Himalaya)- धर्मवीर भारती




प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘ठेले पर हिमालय’-खासा दिलचस्प शीर्षक है न ! और यकीन कीजिए, इसे बिलकुल ढूँढ़ना नहीं पड़ा। बैठे-बिठाए मिल गया। अभी कल की बात है, एक पान की दूकान पर मैं अपने एक गुरुजन उपन्यासकार मित्र के साथ खड़ा था कि ठेले पर बर्फ की सिलें लादे हुए बर्फ वाला आया। ठण्डे, चिकने चमकते बर्फ से भाप उड़ रही थी। मेरे मित्र का जन्म-स्थान अल्मोड़ा है, वे क्षण भर उस बर्फ को देखते रहे, उठती हुई भाप में खोए रहे खोए-खोए-से ही बोले, ‘यही बर्फ तो हिमालय की शोभा है।’ और तत्काल शीर्षक मेरे मन में कौंध गया, ‘‘ठेले पर हिमालय’। पर आपको इसलिए बता रहा हूँ कि अगर आप नये कवि हों तो भाई, इसे ले जाएँ और इस शीर्षक पर दो-तीन सौ पंक्तियाँ, बेडौल, बेतुकी लिख डालें-शीर्षक मौजूँ हैं, और अगर नयी कविता से नाराज हों, सुललित गीतकार हों तो गुंजाइश है, इस बर्फ को डाटे, उतर आओ। ऊँचे शिखर पर बन्दरों की तरह क्यों चढ़े बैठे हो ? ओ नये कवियों ! ठेले पर लदो। पान की दूकानों पर बिको।

ये तमाम बातें उसी समय मेरे मन में आयीं और मैंने अपने गुरुजन मित्र को बतायीं भी। वे हँसे भी, पर मुझे लगा कि वह बर्फ कहीं मेरे मन को खरोंच गयी है और ईमान की बात यह है कि जिसने 50 मील दूर से भी बादलों के बीच नीले आकाश में हिमालय की शिखर रेखा को चाँद-तारों से बात करते देखा है, चाँदनी में उजली बर्फ को धुँधले हल्के नीले जाल में दूधिया समुद्र की तरह मचलते और जगमगाते देखा है, उसके मन पर हिमालय की बर्फ एक ऐसी खरोंच छोड़ जाती है जो हर बार याद आने पर पिरा उठती है। मैं जानता हूँ, क्योंकि वह बर्फ मैंने भी देखी है।

सच तो यह है कि सिर्फ बर्फ को बहुत निकट से देख पाने के लिए ही हम लोग कौसानी गये थे। नैनीताल से रानीखेत और रानीखेत से मझकाली के भयानक मोड़ों को पार करते हुए कोसी। कोसी से एक सड़क अल्मोड़े चली जाती है, दूसरी कौसानी। कितना, कष्टप्रद, कितना सूखा और कितना कुरूप है वह रास्ता ! पानी का कहीं नाम-निशान नहीं, सूखे-भूरे पहाड़, हरियाली का नाम नहीं। ढालों को काटकर बनाए हुए टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर अल्मोड़े का एक नौसिखिया और लापरवाह ड्राइवर जिसने बस के तमाम मुसाफिरों की ऐसी हालत कर दी कि जब हम कौसी पहुँचे तो सभी के चेहरे पीले पड़ चुके थे। कौसानी जाने वाले सिर्फ हम दो थे, वहाँ उतर गये। बस अल्मोड़े चली गयी। सामने के एक टीन के शेड में काठ की बेंच पर बैठकर हम वक्त काटते रहे। तबीयत सुस्त थी और मौसम में उमस थी। दो घण्टे बाद दूसरी लारी आकर रुकी और जब उसमें से प्रसन्न-बदन शुक्ल जी को उतरते देखा तो हम लोगों की जान में जान आयी। शुक्ल जी जैसा सफर का साथी पिछले जन्म के पुण्यो से मिलता है। उन्होंने हमें कौसानी आने का उत्साह दिलाया था और खुद तो कभी उनके चेहरे पर थकान या सुस्ती दिखी ही नहीं, पर उन्हें देखते ही हमारी भी सारी थकान काफूर हो जाया करती थी।

पर शुक्ल जी के साथ यह नयी मूर्ति कौन है ? लम्बा-दुबला शरीर, पतला-साँवला चेहरा, एमिल जोला-सी दाढ़ी, ढीला-ढाला पतलून, कन्धे पर पड़ी हुई ऊनी जर्किन, बगल में लटकता हुआ जाने थर्मस या कैमरा या बाइनाकुलर। और खासी अटपटी चाल थी बाबूसाहब की। यह पतला-दुबला मुझ-जैसा ही सींकिया शरीर और उस पर आपका झूमते हुए आना ! मेरे चेहरे पर निरन्तर घनी होती हुई उत्सुकता को ताड़कर शुक्ल जी ने कहा-‘हमारे शहर के मशहूर चित्रकार हैं सेन, अकादमी से इनकी कृतियों पर पुरस्कार मिला है। उसी रुपये से घूमकर छुट्टियाँ बिता रहे हैं।’’ थोड़ी ही देर में हम लोगों के साथ सेन घुल-मिल गया, कितना मीठा था हृदय से वह ! वैसे उसके करतब आगे चलकर देखने में आये।
कोसी से बस चली तो रास्ते का सारा दृश्य बदल गया। सुडौल पत्थरों पर कलकल करती हुई कोसी, किनारे के छोटे-छोटे सुन्दर गाँव और हरे मखमली खेत। कितनी सुन्दर है सोमेश्वर की घाटी ! हरी-भरी। एक के बाद एक स्टेशन पड़ते थे, छोटे-छोटे पहाड़ी डाकखाने, चाय की दुकानें और कभी-कभी कोसी या उसमें गिरने वाले नदी-नालों पर बने हुए पुल। कहीं-कहीं सड़क निर्जन चीड़ के जंगलों से गुजरती थी। टेढ़ी-मेढ़ी, ऊपर-नीचे रेंगती हुई कंकरीली पीठ वाले अजगर-सी सड़क पर धीरे-धीरे बस चली जा रही थी। रास्ता सुहावना था और उस थकावट के बाद उसका सुहावना पन हमें और भी तन्द्रालस बना रहा था। पर ज्यों-ज्यों बस आगे बढ़ रही थी, हमारे मन में एक अजीब सी निराशा छाती जा रही थी-अब तो हम लोग कौसानी के नजदीक हैं, कोसी से 18 मील चले आये, कौसानी सिर्फ छह मील है, पर कहाँ गया वह अतुलित सौन्दर्य, वह जादू जो कौसानी के बारे में सुना जाता था। आते समय मेरे एक सहयोगी ने कहा था कि कश्मीर के मुकाबले में उन्हें कौसानी ने अधिक मोहा है, गाँधी जी ने यहाँ अनासक्ति योग लिखा था और कहा था कि स्विट्जरलैण्ड का आभास कौसानी में ही होता है। ये नदी, घाट


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साकेत (Saket)- मैथिलीशरण गुप्त



साकेत श्री मैथिलीशरण गुप्त रचित महाकाव्य का नाम है। इसके लिए उन्हें १९३२ में मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।

साकेत राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की अमर कृति है। इस कृति में राम के भाई लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के विरह का जो चित्रण गुप्त जी ने किया है वह अत्यधिक मार्मिक और गहरी मानवीय संवेदनाओं और भावनाओं से ओत-प्रोत है। साकेत रामकथा पर आधारित है, किन्तु इसके केन्द्र में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला है। साकेत में कवि ने उर्मिला और लक्ष्मण के दाम्पत्य जीवन के हृदयस्पर्शी प्रसंग तथा उर्मिला की विरह दशा का अत्यन्त मार्मिक चित्रण किया है, साथ ही कैकेयी के पश्चात्ताप को दर्शाकर उसके चरित्र का मनोवैज्ञानिक एवं उज्ज्वल पक्ष प्रस्तुत किया है।

पुस्तक अंश

प्रेम से उस प्रेयसी ने तब कहा--
"रे सुभाषी, बोल, चुप क्यों हो रहा?"
पार्श्व से सौमित्रि आ पहुँचे तभी,
और बोले-"लो, बता दूँ मैं अभी।
नाक का मोती अधर की कांति से,
बीज दाड़िम का समझ कर भ्रांति से,
देख कर सहसा हुआ शुक मौन है;
सोचता है, अन्य शुक यह कौन है?"
यों वचन कहकर सहास्य विनोद से,
मुग्ध हो सौमित्रि मन के मोद से,
पद्मिनी के पास मत्त-मराल-से,
होगए आकर खड़े स्थिर चाल से।
चारु-चित्रित भित्तियाँ भी वे बड़ी,
देखती ही रह गईं मानों खड़ी।
प्रीति से आवेग मानों आ मिला,
और हार्दिक हास आँखों में खिला।
मुस्करा कर अमृत बरसाती हुई,
रसिकता में सुरस सरसाती हुई,
उर्मिला बोली, "अजी, तुम जग गए?
स्वप्न-निधि से नयन कब से लग गए?"


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ग़बन (Gaban)- मुंशी प्रेमचंद




ग़बन प्रेमचंद द्वारा रचित उपन्यास है। ‘निर्मला’ के बाद ‘गबन’ प्रेमचंद का दूसरा यथार्थवादी उपन्यास है। कहना चाहिए कि यह उसके विकास की अगली कड़ी है। ग़बन का मूल विषय है - 'महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव'।

ग़बन प्रेमचन्द के एक विशेष चिन्ताकुल विषय से सम्बन्धित उपन्यास है। यह विषय है, गहनों के प्रति पत्नी के लगाव का पति के जीवन पर प्रभाव। गबन में टूटते मूल्यों के अंधेरे में भटकते मध्यवर्ग का वास्तविक चित्रण किया गया। इन्होंने समझौतापरस्त और महत्वाकांक्षा से पूर्ण मनोवृत्ति तथा पुलिस के चरित्र को बेबाकी से प्रस्तुत करते हुए कहानी को जीवंत बना दिया गया है।

इस उपन्यास में प्रेमचंद ने पहली नारी समस्या को व्यापक भारतीय परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा है और उसे तत्कालीन भारतीय स्वाधीनता आंदोलन से जोड़कर देखा है। सामाजिक जीवन और कथा-साहित्य के लिए यह एक नई दिशा की ओर संकेत करता है। यह उपन्यास जीवन की असलियत की छानबीन अधिक गहराई से करता है, भ्रम को तोड़ता है। नए रास्ते तलाशने के लिए पाठक को नई प्रेरणा देता है।



‘ग़बन’ की नायिका, जालपा, एक चन्द्रहार पाने के लिए लालायित है। उसका पति कम वेतन वाला क्लर्क है यद्यपि वह अपनी पत्नी के सामने बहुत अमीर होने का अभिनय करता है। अपनी पत्नी को संतुष्ट करने के लिए वह अपने दफ्तर से ग़बन करता है और भागकर कलकत्ता चला जाता है जहां एक कुंजड़ा और उसकी पत्नी उसे शरण देते हैं। डकैती के एक जाली मामले में पुलिस उसे फंसाकर मुखबिर की भूमिका में प्रस्तुत करती है।

उसकी पत्नी परिताप से भरी कलकत्ता आती है और उसे जाल से निकालने में सहायक होती है। इसी बीच पुलिस की तानाशाही के विरूद्ध एक बड़ी जन-जागृति शुरू होती है। इस उपन्यास में विराट जन-आन्दोलनों के स्पर्श का अनुभव पाठक को होता है। लघु घटनाओं से आरंभ होकर राष्ट्रीय जीवन में बड़े-बड़े तूफान उठ खड़े होते हैं। एक क्षुद्र वृत्ति की लोभी स्त्री से राष्ट्र-नायिका में जालपा की परिणति प्रेमचंद की कलम की कलात्मकता की पराकाष्ठा है।

ग़बन प्रेमचन्द के एक विशेष चिन्ताकुल विषय से सम्बन्धित उपन्यास है। यह विषय है, गहनों के प्रति पत्नी के लगाव का पति के जीवन पर विषयक प्रभाव। गबन में टूटते मूल्यों के अंधेरे में भटकते मध्यवर्ग का वास्तविक चित्रण किया गया। इन्होंने समझौता परस्त और महत्वाकांक्षा से पूर्ण मनोवृत्ति तथा पुलिस के चरित्र को बेबाकी से प्रस्तुत करते हुए कहानी को जीवंत बना दिया गया है।


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Sunday 20 September 2015

सत्यार्थ प्रकाश (Satyarth Prakash)- स्वामी दयानंद सरस्वती


सत्यार्थ प्रकाश की रचना आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने की। यद्यपि उनकी मातृभाषा गुजराती थी और संस्कृत का इतना ज्ञान था कि संस्कृत में धाराप्रवाह बोल लेते थे, तथापि इस ग्रन्थ को उन्होंने हिन्दी में रचा। कहते हैं कि जब स्वामी जी 1872 में कलकत्ता में केशवचन्द्र सेन से मिले तो उन्होने स्वामी जी को यह सलाह दी कि आप संस्कृत छोडकर हिन्दी बोलना आरम्भ कर दें तो भारत का असीम कल्याण हो। तभी से स्वामी जी के व्याख्यानों की भाषा हिन्दी हो गयी और शायद इसी कारण स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश की भाषा भी हिन्दी ही रखी।

स्वामी जी पूरे देश में घूम-घूमकर शास्त्रार्थ एवं व्याख्यान कर रहे थे। इससे उनके अनुयायियों ने अनुरोध किया कि यदि इन शास्त्रार्थों एवं व्याख्यानों को लिपिबद्ध कर दिया जाय तो ये अमर हो जायेंगे। सत्यार्थ प्रकाश की रचना उनके अनुयायियों के इस अनुरोध के कारण ही सम्भव हुई। सत्यार्थ प्रकाश की रचना का प्रमुख उद्देश्य आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार था। इसके साथ-साथ इसमें ईसाई, इस्लाम एवं अन्य कई पन्थों व मतों का खण्डन भी है। उस समय हिन्दू शास्त्रों का गलत अर्थ निकाल कर हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को बदनाम करने का षड्यन्त्र भी चल रहा था। इसी को ध्यान में रखकर महर्षि दयानन्द ने इसका नाम सत्यार्थ प्रकाश (सत्य+अर्थ+प्रकाश) अर्थात् सही अर्थ पर प्रकाश डालने वाला (ग्रन्थ) रखा।


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अँधा युग (Andha Yug)- धर्मवीर भारती


धर्मवीर भारती का काव्य नाटक अंधा युग भारतीय रंगमंच का एक महत्त्वपूर्ण नाटक है। महाभारत युद्ध के अंतिम दिन पर आधारित यह् नाटक चार दशक से भारत की प्रत्येक भाषा में मंचित हो रहा है। इब्राहीम अलकाजी, एम के रैना, रतन थियम, अरविन्द गौड़, राम गोपाल बजाज, मोहन महर्षि और कई अन्य भारतीय रंगमंच निर्देशको ने इसका मंचन किया है। इसमें युद्ध और उसके बाद की समस्याओं और मानवीय महात्वाकांक्षा को प्रस्तुत किया गया है। नए संदर्भ और कुछ नवीन अर्थों के साथ अंधा युग को लिखा गया है। हिन्दी के सबसे महत्त्वपूर्ण नाटकों में से एक अंधा युग में धर्मवीर भारती ने ढेर सारी संभावनाएँ रंगमंच निर्देशको के लिए छोड़ी हैं। कथानक की समकालीनता नाटक को नवीन व्याख्या और नए अर्थ देती है। नाट्य प्रस्तुति मे कल्पनाशील निर्देशक नए आयाम तलाश लेता है। तभी इराक युद्ध के समय निर्देशक अरविन्द गौड़ ने आधुनिक अस्त्र-शस्त्र के साथ इसका मन्चन किया। काव्य नाटक अंधा युग में कृष्ण के चरित्र के नए आयाम और अश्वत्थामा का ताकतवर चरित्र है, जिसमें वर्तमान युवा की कुंठा और संघर्ष उभरकर सामने आता है।

सरस्वतीचंद्र (Saraswati Chandra)



‘सरस्वतीचन्द्र’ गुजरात का गरिमामय ग्रन्थ-रत्न है। इसमें सन् 1885 के आसपास के संक्रान्तिकाल का - विशेषरूप से गुजरात और सामान्यतः समग्र भारत का - विस्तृत, तत्त्वस्पर्शी और आर्षदृष्टि-युक्त चित्रण है। भारत के छोटे-बड़े राज्य, अंग्रेजी शासन और उसका देश पर छाया हुआ प्रभुत्व, अज्ञान और दारिद्रय इन दो चक्की के पाटों के बीच पिसती, सत्ताधीशों से शोषित और जिसे राजा की सत्ता को पूज्य समझना चाहिए ऐसी ‘कामधेनु’ के समान पराधीन प्रजा, अपना परिवर्तित होता हुआ पारिवारिक जीवन, खंडित जीवन को सुवासित करने वाले स्नेह की सुगंध, अंग्रेजी शिक्षा का आरंभ और भारत के युवक वर्ग पर पड़ने वाला उसका अनुकूल-प्रतिकूल प्रभाव, संधि-काल में बदलते हुए जीवन-मूल्य, न केवल समाज के योगक्षेम वरन् इसके वास्तविक एवं पूर्ण विकास के लिए स्त्री-जाति के उत्थान की आवश्यकता, धर्म के नाम पर पाखण्ड और अन्धविश्वास से पूर्ण निर्जीव और निष्क्रिय सामाजिक जीवन, नूतन विज्ञान और उद्योग से समृद्ध पाश्चात्य संस्कृति का प्रादुर्भाव और भारत में व्याप्त होता हुआ उसका प्रभाव, लोक-कल्याण की यज्ञ-भावना और उसमें कुमुद, सरस्वतीचन्द्र तथा कुसुम की बलि, देश के सर्वांगीण उन्नति के लिए कल्याण-ग्राम की योजना, लोक-कल्याण के पोषण में ही साधुओं और उनके संन्यास की सार्थकता - ये और ऐसी ही अनेक धाराएँ इस कृति में चक्र की नाभि से निकलती अराओं की भांति दिखाई देंगी। लेकिन इन सबमें लेखक का केन्द्रीय भाव तो भारत के पुनरुत्थान और जन-कल्याण का ही है। सरस्वतीचन्द्र की अस्थिरचित्तता और वैराग्य-भावना के मूल में भी लेखक का लोक-चित्रण तथा लोक-कल्याण का दृष्टिकोण ही निहित है।

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देवकी का बेटा (Devki ka Beta)- रांगेय राघव




हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार रांगेय राघव ने विशिष्ट काव्यों कलाकारों और महापुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यासों की एक माला लिखकर साहित्य की एक बड़ी आवश्यकता को पूर्ण किया है। प्रस्तुत उपन्यास ‘देवकी का बेटा’ में उन्होंने जननायक श्रीकृष्ण का चरित्र ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्तुत किया है।

इसमें श्रीकृष्ण के जीवन के साथ संबद्ध अनेकानेक अलौकिक घटनाओं का लेखक ने वैज्ञानिक कसौटी पर रख कर उन सबका संगत अर्थ दिया है और कृष्ण को एक महान पुरुषार्थी, त्यागी, कर्मठ और जीवन को एक विशिष्ट मोड़ देने वाले एक सामान्य मनुष्य के रूप में चित्रित किया है। ‘देवकी का बेटा’ में समय के धुंधलके और कुहासे से ढके एक महान ऐतिहासिक पुरुष के चरित्र को बहुत ही स्पष्ट, यथार्थसंगत और प्रामाणिक रूप में चित्रित किया गया है।

श्रीकृष्ण के जीवन पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास—ऐतिहासिक अध्ययन और यथार्थ सम्मत दृष्टि से महान पुरुषार्थी, योगेश्वर श्रीकृष्ण का सामान्य मनुष्य के रूप में चित्रण—यशस्वी उपन्यासकार रांगेय राघव की कलम से


गोधूली में लौटती हुई गायों के गले में लटकाई हुई घंटियाँ बजने लगीं। गोकुल के पक्के और कच्चे घरों पर अगरुधूम जलने लगा था और कहीं-कहीं से मंत्रोच्चारण की ध्वनि आ रही थी। ब्राह्मण संध्योपासना की क्रिया में लगे हुए थे। गोपों के घरों में गायों की सेवा और दुहने का काम हो रहा था। स्त्रियों के भारी चूड़े आपस में टकराकर शब्द कर उठते थे।

उस समय गले में वैजयंती माला डाले गायों के झुण्ड के पीछे कृष्ण और चित्रगंधा चले आ रहे थे। कृष्ण मदिर-मदिर बाँसुरी बजा रहा था। दूर कहीं बजते हुए घण्टों के स्वर पर उतरता हुआ अंधकार धीरे-धीरे पथ पर लोटने लगा था। कृष्ण के किशोर अंगों पर उभरी हुई सुंदर मांसपेशियाँ इस समय उसे अवाक् पौरुष की विन्रमता दे रही थीं। चित्रगंधा चुपचाप संग-संग चली आ रही थी।


द्वार पर पहुँचते ही माता मदिरा ने कहा, ‘‘पुत्र, तू कहाँ रहा ! तुझे बलराम ढूँढ़ रहा था ?’’
भद्रवाहा पास ही खड़ी थी। उसने मुस्कराकर चित्रगंधा की ओर देखा और कहा, ‘‘और तू कहाँ थी ?’’
चित्रगंधा ने अनजाने ही उत्तर दिया, ‘‘मैं तो इसके साथ ही थी।’’ उसने कृष्ण की ओर इंगित किया।
भद्रवाहा की बात को मदिरा के मातृत्व की मर्यादा ने आगे बढ़ने से रोक दिया। उसने कहा, ‘‘चलो-चलो, हाथ-मुँह धो लो ! तुम लोग दिन-भर गायों के पीछे ! सहज नहीं है ! थक नहीं जाते ?’’
उसने वाक्य एक भी पूरा नहीं किया।
‘‘थूकूँगा क्यों मातर !’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘मुझे तो इससे बढ़कर कुछ भी नहीं लगता। यहाँ ग्राम में वह आनंद कहाँ जो वहाँ वन के सघन वृक्षों की सोती हुई छाया में है।’’
मदिरा समझी-ना-समझी सी कनखियों से देख उठी। भद्रवाहा पूर्ण दृष्टि से चित्रगंधा को घूर रही थी। कृष्ण कहता जा रहा था, ‘‘वहाँ भ्रमर गुंजारते हैं। कहीं कदंब फूलते हैं। कहीं वर्षा का प्रखर धारा से बहनेवाला जल लबालब भर गया है। आज तो मैं और ये चित्रगंधा बड़ी देर तक उस पानी में तैरते रहे।’’

‘‘सच, बड़ा आनंद आया !’’ चित्रगंधा ने कहा।
‘‘तू चुप रह !’’ मदिरा ने कहा, ‘‘दिन-भर घूमती है, घर का कुछ काम भी करती है ?’’
चित्रगंधा का मुँह उतर गया।
भद्रवाहा ने पूछा, ‘‘तो तू दिन-भर तैरता रहा ?’’
उसकी प्रश्नों-भरी आँखों में और भी कुछ था। वह अपने अस्तित्व के होते हुए भी स्पष्ट था। होठों का एक कोना मुड़ गया था। वह हास्य का व्यंग्य रूप था जो स्नेह की तूलिका से मुड़कर सहस्यमय बन जाता था, ऐसा कि बिना बोले सब कहलवा ले।
‘‘नहीं, मेरी बहरी भाभी !’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘फिर हम दोनों ने जाकर कुञ्ज में विश्राम किया।’’
मदिरा व्यस्तता दिखाकर भीतर चली गई। वह वसुदेव की पत्नी थी, अतः कहलाती माता थी। भद्रवाहा तो सुमुख गोप की स्त्री थी और उसका स्वभाव ही ठिठोली करने वाला था। माता के चले जाने पर भद्रवाहा ने चित्रगंधा को सुनाकर कहा, ‘‘देवर ! एक दिन मुझे भी उस कुञ्ज में ले चलेगा ?’’ फिर वह मुस्कराई। चित्रगंधा के गाल पर लाज की मार डोल उठी।
कृष्ण ने कहा, ‘‘क्यों भाभी ! सुमुख भ्रातर कहाँ गए ?’’

‘‘वे तो अब बूढ़े हुए,’’ भद्रवाहा ने कहा, ‘‘एक दिन गोपियाँ उनके पीछे भी डोलती थीं। अब तेरा समय आया है। रासी गोपियाँ तुझे चाहती हैं। तुझे देखना चाहती हैं। फिर मुझमें ही क्या दोष है ?’’
कृष्ण ने कहा, ‘‘यही तो मैं भी डर रहा हूँ।’’
‘‘क्यों ?’’ भद्रवाहा ने कहा।
चित्रगंधा ने देखा। कृष्ण कह उठा, ‘‘तुम्हीं तो कहती थीं कि भ्रातर सुमुख वृद्ध हो गए हैं। वे भी कभी अपना सम्मोहन डालते थे। तुम्हारा संग हुआ, वृद्ध हो गए। कहीं मैंने तुम्हारा संग कर लिया और मैं भी वृद्ध हो गया तो ?’’
चित्रगंधा ठठाकर हँसी। भद्रवाहा झेंपी। उसने चित्रगंधा का कान पकड़ कर कहा, ‘‘ढीठ !’’
चित्रगंधा ने कहा, ‘‘ले भाभी ! तूने ही तो पहले छेड़ा था। अब क्यों नहीं बोलती ?’’


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यामा (Yaama)- महादेवी वर्मा


यामा एक कविता-संग्रह है जिसकी रचायिता महादेवी वर्मा हैं। इसमें उनके चार कविता संग्रह नीहार, नीरजा, रश्मि और सांध्यगीत संकलित किए गए हैं।

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश -


नीहार
(प्रथम यामः)

एक


निशा को, धो देता राकेश
चाँदनी में जब अलकें खोल,
कली से कहता था मधुमास
बता दो मधुमदिरा का मोल,

गये तब से कितने युग बीत
हुए कितने दीपक निर्वाण
नहीं पर मैंने पाया सीख,
तुम्हारा सा मनमोहन गान।

बिछाती थी सपनों के जाल
तुम्हारी वह करुणा की कोर,
गयी वह अधरों की मुस्कान
मुझे मधुमय पीड़ा में बोर,

भूलती थी मैं सीखे राग
बिछलते थे कर बारम्बार,


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गुनाहों का देवता (Gunahon Ka Devta)- धर्मवीर भारती



यह हिंदी उपन्यासकार धर्मवीर भारती के शुरुआती दौर के और सर्वाधिक पढ़े जाने वाले उपन्यासों में से एक है। इसमें प्रेम के अव्यक्त और अलौकिक रूप का अन्यतम चित्रण है। सजिल्द और अजिल्द को मिलाकर इस उपन्यास के एक सौ से ज्यादा संस्करण छप चुके हैं।


कहानी का नायक चंदर सुधा से प्रेम तो करता है, लेकिन सुधा के पापा के उस पर किए गए अहसान और व्यक्तित्व पर हावी उसके आदर्श कुछ ऐसा ताना-बाना बुनते हैं कि वह चाहते हुए भी कभी अपने मन की बात सुधा से नहीं कह पाता। सुधा की नजरों में वह देवता बने रहना चाहता है और होता भी यही है। सुधा से उसका नाता वैसा ही है, जैसा एक देवता और भक्त का होता है। प्रेम को लेकर चंदर का द्वंद्व उपन्यास के ज्यादातर हिस्से में बना रहता है। नतीजा यह होता है कि सुधा की शादी कहीं और हो जाती है और अंत में उसे दुनिया छोड़कर जाना पड़ता है।

कहानी की एक और पात्र है पम्मी, जिसके मुंह से लेखक ने जिंदगी, प्रेम, वासना, विवाह आदि से जुड़ी तमाम ऐसी बातें कहलवाई हैं, जिन पर पाठक सोचने को मजबूर हो जाता है। एक प्रसंग में पम्मी चंदर से कहती है - कितना अच्छा हो, अगर आदमी हमेशा संबंधों में एक दूरी रखे। सेक्स न आने दे। ये सितारे हैं, देखो कितने नजदीक हैं। करोड़ों बरस से साथ हैं, लेकिन कभी भी एक-दूसरे को छूते तक नहीं, तभी तो संग निभ जाता है। बस ऐसा हो कि आदमी अपने प्रेमास्पद को अपने निकट लाकर छोड़ दे, उसको बांधे न। कुछ ऐसा हो कि होंठों के पास खींचकर छोड़ दे...' उल्लेखनीय है कि अलौकिक प्रेम पर कुछ ऐसे ही विचार बाद के सालों में अमृता प्रीतम ने भी रखे, जिनका संदेश भी यही है कि कोई तुम्हें चाहे तो दिल से चाहे, पास आए, लेकिन तुम्हें छू न पाए, जो तुम्हारे एकाकी पर आक्रांत न हो और जिसके साथ रहकर भी तुम्हारे स्व को कोई ठेस न लगे।

पम्मी के साथ चंदर के अंतरंग लम्हों का गहराई से चित्रण करते हुए भी लेखक ने पूरी सावधानी बरती है। पूरे प्रसंग में थोड़ा सेक्सुअल टच तो है, पर वल्गैरिटी कहीं नहीं है, उसमें सिहरन तो है, लेकिन यह पाठकों को उत्तेजित नहीं करता। लेखक खुद इस उपन्यास के कितने नजदीक हैं, इसका अंदाजा उनके इस कथन से लगाया जा सकता है - मेरे लिए इस उपन्यास का लिखना वैसा ही रहा है, जैसा पीड़ा के क्षणों में पूरी आस्था से प्रार्थना करना और इस समय भी मुझे ऐसा लग रहा है, जैसे मैं प्रार्थना मन ही मन दोहरा रहा हूं, बस |


प्रसिद्ध पंक्तिया

इस पुस्तक की कुछ उल्लेखनिए पंक्तियाँ।

छह बरस से साठ बरस तक की कौन-सी ऐसी स्त्री है, जो अपने रूप की प्रशंसा पर बेहोश न हो जाए।
बहलावे के लिए मुस्कानें ही जरूरी नहीं होती हैं, शायद आंसुओं से मन जल्दी बहल जाता है।
अविश्वास आदमी की प्रवृत्ति को जितना बिगाड़ता है, विश्वास उतना ही बनाता है।
ऐसे अवसरों पर जब मनुष्य को गंभीरतम उत्तरदायित्व सौंपा जाता है, तब स्वभावत: आदमी के चरित्र में एक विचित्र-सा निखार आ जाता है।
जब भावना और सौंदर्य के उपासक को बुद्धि और वास्तविकता की ठेस लगती है, तब वह सहसा कटुता और व्यंग्य से उबल उठता है।
बुद्धि और शरीर बस यही दो आदमी के मूल तत्व हैं। हृदय तो दोनों के अंत:संघर्ष की उलझन का नाम है।
मनुष्य का एक स्वभाव होता है। जब वह दूसरे पर दया करता है तो वह चाहता है कि याचक पूरी तरह विनम्र होकर उसे स्वीकार करे। अगर याचक दान लेने में कहीं भी स्वाभिमान दिखाता है तो आदमी अपनी दानवृत्ति और दयाभाव भूलकर नृशंसता से उसके स्वाभिमान को कुचलने में व्यस्त हो जाता है।
अगर आप किसी औरत के हाथ पर हाथ रखते हैं तो स्पर्श की अनुभूति से ही वह जान जाएगी कि आप उससे कोई प्रश्न कर रहे हैं, याचना कर रहे हैं, सांत्वना दे रहे हैं या सांत्वना मांग रहे हैं। क्षमा मांग रहे हैं या क्षमा दे रहे हैं, प्यार का आरंभ कर रहे हैं या समाप्त कर रहे हैं? स्वागत कर रहे हैं या विदा दे रहे हैं? यह पुलक का स्पर्श है या उदासी का चाव और नशे का स्पर्श है या खिन्नता और बेमनी का?
अगर पुरुषों के होंठों में तीखी प्यास न हो, बाहुपाशों में जहर न हो, तो वासना की इस शिथिलता से नारी फौरन समझ जाती है कि संबंधों में दूरी आती जा रही है। संबंधों की घनिष्ठता को नापने का नारी के पास एक ही मापदंड है, चुंबन का तीखापन।



गुनाहों का देवता

आपकी अपनी हिंदी भाषा में आपको उपलब्ध होने जा रही हैं ढेरो पुस्तकें