Sunday 29 November 2015

निर्बंध (महासमर भाग 8)- नरेंद्र कोहली

Nirbandh (Mahasamar 8) by Narendra Kohli

महासमर सीरीज़ का आखिरी उपन्यास

पाठक पूछता है कि यदि उसे महाभारत की कथा पढ़नी है तो वह व्यासकृत मूल महाभारत ही क्यों न पढ़े, नरेन्द्र कोहली का उपन्यास क्यों पढ़े ? वह यह भी पूछता है कि उसे उपन्यास ही पढ़ना है, तो वह समसामयिक सामाजिक उपन्यास क्यों न पढ़े, नरेन्द्र कोहली का ‘महासागर’ ही क्यों पढे़ ? 

‘महासागर’ हमारा काव्य भी है, इतिहास भी और अध्यात्म भी। हमारे प्राचीन ग्रंथ शाश्वत सत्य की चर्चा करते हैं। वे किसी कालखंड के सीमित सत्य में आबद्ध नहीं हैं, जैसा कि यूरोपीय अथवा यूरोपीयकृत मस्तिष्क अपने अज्ञान अथवा बाहरी प्रभाव में मान बैठा है। नरेंन्द्र कोहली ने न महाभारत को नए संदर्भो में लिखा है, न उसमें संशोधन करने का कोई दावा है। न वे पाठको को महाभारत समझाने के लिए, उसकी व्याख्या कर रहे हैं। नरेन्द्र कोहली यह नहीं मानते कि महाकाल की यात्रा, खंडों में विभाजित है, इसलिए जो घटनाए घटित हो चुकी हैं, उनमें अब हमारा कोई संबन्ध नहीं है, उनकी मान्यता है कि न तो प्रकृति के नियम बदले हैं, न मनुष्य का मनोविज्ञान। मनुष्य की अखंड कालयात्रा को इतिहास खंड़ों में बाँटे तो बाँटे, साहित्य उन्हें विभाजित नहीं करता, यद्यपि ऊपरी आवरण सदा ही बदलते रहते हैं। 

महाभारत की कथा भारतीय चिंतन और भारतीय संस्कृति की अमूल्य थाती है। नरेन्द्र कोहली ने उसे ही अपने उपन्यास का आधार बनाया है, जो उसे अपने बाहरी कथा मनुष्य के उस अनवरत युद्ध की कथा है, जो उसे अपने बाहरी भीतरी शत्रुओं के साथ निरंतर करना पड़ता है। वह उस संसार में रहता है, जिसमें चारों ओर लोभ, मोह, सत्ता और स्वार्थ संघर्षरत हैं। बाहर से अधिक, उसे अपनों से लड़ना पड़ता है। और यदि वह अपने धर्म पर टिका रहता है, तो वह इसी देह में स्वर्ग भी जा सकता है- इसका आश्वासन ‘महाभरत’ देता है। लोभ, त्रास और स्वार्थ के विरुद्ध मनुष्य के इस सात्विक उपन्यास के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।..और वह है ‘महासागर’। आठ खंडो में प्रकाशित होने वाले इस उपन्यास का यह आठवा और अंतिम खंड है। इस खंड के साथ यह उपन्यास श्रंखला पूर्ण हुई, जिसके लेखन में लेखक को पंद्रह वर्ष लगे हैं। कदाचित् यह हिंदी की सबसे बृहदाकार उपन्यास है, जो रोचकता, पठनीयता और इस देश की परंपरा के गंभीर चिंतन को एक साथ समेटे हुए है। 

आप इसे पढ़े और स्वयं अपने आप से पूछें, आपने इतिहास पढ़ा ? पुराण पढ़ा ? धर्मग्रंथ पढ़ा अथवा एक रोचक उपन्यास पढ़ा ? इसे पढ़कर आपका मनोरंजन हुआ है ? आपका ज्ञान बढ़ा ? आपका अनुभूति-संसार समृद्ध हुआ ? अथवा आपका विकास हुआ ? क्या आपने इससे पहले कभी ऐसा कुछ पढ़ा था ?


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हैरी पॉटर और अज़्काबान का कैदी

Harry Potter aur Azkaban ka Kaidi

हैरी पॉटर सीरीज़ की तीसरी पुस्तक
हैरी पॉटर अपने दोस्तों रॉन और हर्माइनी के साथ हॉगवर्ट्स जादू और तंत्र के विद्यालय में थर्ड ईयर की पढ़ाई शुरू करने वाला है। गर्मी की छुट्टियों के बाद हैरी स्कूल जाने के लिए बेताब है। इसमें कोई अजीब बात नहीं है, क्योंकि उसे डर्स्ली परिवार में रहना बहुत भयानक लगता है। लेकिन जब हैरी हॉगवर्ट्स पहुँचता है, तो उसे वहाँ भी तनावपूर्ण माहौल ही मिलता है। हर तरफ दहशत फैली है...तेरह लोगों की सामूहिक हत्या करने वाला खूनी अज़्काबान जेल से भाग, निकला है और उसके इरादे खूँखार हैं। अब उस खूनी का अगला निशाना हॉगवर्ट्स ही है, जहाँ हैरी पढ़ता है। यही वजह है कि हॉगवर्ट्स स्कूल की रखवाली के लिए दमपिशाचों यानी अज्काबान के खतरनाक पहरेदारों को बुलाया गया है....क्या उसका निशाना हैरी पॉटर है?...क्या वह खूनी अपने इरादों में कामयाब हो पाएगा

हैरी और उसके दोस्तों की मंत्रमुग्ध करने वाली नई कहानी, जिसे जे. के. रोलिंग ने अपने चिर-परिचित मनमोहक अंदाज़ में लिखा है।

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Tuesday 17 November 2015

प्रत्यक्ष (महासमर भाग 7)- नरेंद्र कोहली


Pratyaksh (Mahasamar 7) by Narendra Kohli 

नरेन्द्र कोहली के महाभारत की कथा पर आश्रित उपन्यास ‘महासमर’ का यह सातवाँ खंड है, जिसमें युद्ध के उद्योग और फिर युद्ध के प्रथम चरण अर्थात भीष्म पर्व की कथा है। कथा तो यही है कि पांडवों ने अपने सारे मित्रों से सहायता माँगी। कृष्ण से भी। पर नरेन्द्र कोहली का प्रश्न है कि जो कृष्ण जो आज तक युधिष्ठिर से कह रहे थे कि वे कुछ न करें बस अनुमति दे दें तो यादव ही दुर्योंधन का वध कर पांडवों का राज्य उन्हें प्राप्त करवा देंगे, वे कृष्ण उद्योग की भूमि उपलव्य से उठकर द्वारका क्यों चले गए ? पांडवों को उनसे सहायता माँगने के लिए द्वारका क्यों जाना पड़ा ? कृष्ण ने पापी दुर्योधन को अपने परम मित्र अर्जुन के समकक्ष कैसे मान लिया ? प्रश्न यह भी है कि जो कृतवर्मा, कृष्ण का समधी था, जिसने कौरवों की राज सभा से कृष्ण को सुरक्षित बाहर निकाल लाने के लिए अपनी जान लड़ा दी, वह दुर्योधन के पक्ष से युद्ध करने क्यों चला गया ? ऐसा क्या हो गया कि यादवों के सर्वप्रिय नेता कृष्ण जब पांडवों की ओर से युद्ध में सम्मलित होने आए तो उनके साथ न उनके भाई थे, न पुत्र ? कोई नहीं था कृष्ण के साथ। यादवों में इतने अकेले कैसे हो गए कृष्ण ?

जिस युधिष्ठिर के राज्य के लिए यह युद्ध होना था, वह युधिष्ठिर ही युद्ध के पक्ष में नहीं था। जिस अर्जुन के बल पर पांडवों को यह युद्ध लड़ना था, वह अर्जुन अपना गांडीव त्याग हताश होकर बैठ गया था। उसे युद्ध नहीं करना था। जिन यादवों का सबसे बड़ा सहारा था, उन यादवों में से कोई नहीं आया लड़ने, तो महाभारत का युद्ध कौन लड़ रहा था ? कृष्ण ? अकेले कृष्ण ? जिन के हाथ में अपना कोई शस्त्र भी नहीं था ? 

अर्जुन शिखंडी को समाने रख भीष्म का वध करता है अथवा पहले चरण में वह भीष्म को शिखंडी से बचाता रहा है और फिर अपने जीवन और युग से हताश भीष्म को एक क्षत्रीय की गौरवपूर्ण मृत्यु देने के लिए उनसे सहयोग करता है ? कर्ण का रोष क्या था और क्या था कर्ण का धर्म ? कर्ण का चरित्र ? इस खंड में कुंती और कर्ण का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हुआ हा। और कुंती ने प्रत्यक्ष किया है कर्ण की महानता को। बताया है उसे कि वह क्या कर रहा है, क्या करता रहा है। बहुत कुछ प्रत्यक्ष हुआ है, महासमर के इस सातवें खंड प्रत्यक्ष में।....किंतु सब से अधिक प्रत्यक्ष हुए हैं नायकों के नायक श्रीकृष्ण। लगता है कि एक बार कृष्ण प्रकट हो जाएँ तो अन्य प्रत्येक पात्र उनके सम्मुख वामन हो जाता है। और इसी खंड में है कृष्ण की गीता...भगवद्गीता..। एक उपन्यास में गीता, जो गीता भी है और उपन्यास भी। इस खंड को पढ़ने के पश्चात निश्चित रूप से आप अनुभव करेंगे कि आप कृष्ण को बहुत जानते थे, पर फिर भी इतना तो नहीं ही जानते थे।..

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Thursday 12 November 2015

बलवा (योद्धा)


Balwa (Yoddha #3) by Raj Comics 

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आक्रमण (योद्धा)


Akraman (Yoddha #2) by Raj Comics 

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कनुप्रिया (धर्मवीर भारती)


Kanupriya by Dharmveer Bharti

ऐसे तो क्षण होते ही हैं जब लगता है कि इतिहास की दुर्दान्त शक्तियाँ अपनी निर्मम गति से बढ़ रही हैं, जिन में कभी हम अपने को विवश पाते हैं, कभी विक्षुब्ध, कभी विद्रोही और प्रतिशोधयुक्त, कभी वल्गाएँ हाथ में लेकर गतिनायक या व्याख्याकार, तो कभी चुपचाप शाप या सलीब स्वीकार करते हुए आत्मबलिदानी उद्धारक या त्राता.....लेकिन ऐसे भी क्षण होते हैं जब हमें लगता है कि यह सब जो बाहर का उद्वेग है-महत्त्व उसका नहीं है-महत्त्व उसका है जो हमारे अन्दर साक्षात्कृत होता है-चरम तन्मयता का क्षण जो एक स्तर पर सारे बाह्म इतिहास की प्रक्रिया से ज्यादा मूल्यवान् सिद्ध होता है, जो क्षण हमें सीपी की तरह खोल गया है-इस तरह कि समस्त बाह्म-अतीत, वर्तमान और भविष्य-सिमट कर उस क्षण में पूँजीभूत हो गया है, और हम हम नहीं रहे !

प्रयास तो कई बार यह हुआ कि कोई ऐसा मूल्यस्तर खोजा जा सके जिस पर ये दोनों ही स्थितियाँ अपनी सार्थकता पा सकें-पर इस खोज को कठिन पा कर दूसरे आसान समाधान खोज लिये गये हैं-मसलन इन दोनों के बीच एक अमिट पार्थक्य रेखा खींच देना-और फिर इस बिन्दु से खड़े होकर उस बिन्दु को, और उस बिन्दु से खड़े होकर इस बिन्दु को मिथ्या भ्रम घोषित करना।......या दूसरी पद्धति यह रही है कि पहले वह स्थिति जी लेना, उस की तन्मयता को सर्वोपरि मानना- और बाद में दूसरी स्थिति का सामना करना, उस के समाधान की खोज में पहली को बिलकुल भूल जाना। इस तरह पहली को भूलकर दूसरी और दूसरी से अब फिर पहली की ओर निरन्तर घटते-बढ़ते रहना-धीरे-धीरे इस असंगति के प्रति न केवल अभ्यस्त हो जाना-वरन् इसी असंगति को महानता का आधार मान लेना। (यह घोषित करना कि अमुक मनुष्य या प्रभु का व्यक्तित्व ही इसीलिए असाधारण है कि वह दोनों विरोधी स्थितियाँ बिना किसी सामंजस्य के जी सकने में समर्थ हैं।)

लेकिन वह क्या करे जिसने अपने सहज मन से जीवन जिया है, तन्मयता के क्षणों में डूब कर सार्थकता पायी है, और जो अब उद्धघोषित महानताओं से अभिभूत और आतंकित नहीं होता बल्कि आग्रह करता है कि वह उसी सहज की कसौटी पर समस्त को कसेगा।
ऐसा ही आग्रह है कनुप्रिया का !

लेकिन उस का यह प्रश्न और आग्रह उस की प्रारम्भिक कैशोर्य-सुलभ मनःस्थितियों से ही उपज कर धीरे-धीरे विकसित होता गया है। इस कृति का काव्यबोध भी उन विकास स्थितियों को उन की ताजगी में ज्यों का त्यों रखने का प्रयास करता चलता है। पूर्वराग और मंजरी-परिणय उस विकास का प्रथम चरण, सृष्टि-संकल्प, द्वितीय चरण तथा महाभारत काल से जीवन के अन्त तक शासक, कूटनीतिज्ञ व्याख्याकार कृष्ण के इतिहास-निर्माण को कनुप्रिया की दृष्टि से देखने वाले खण्ड-इतिहास तथा समापन इस विकास का तृतीय चरण चित्रित करते हैं।

लेखक के पिछले दृश्यकाव्य में एक बिन्दु से इस समस्या पर दृष्टिपात किया जा चुका है-गान्धारी, युयुत्सु और अश्वत्थामा के माध्यम से। कनुप्रिया उनसे सर्वथा पृथक-बिलकुल दूसरे बिन्दु से चल कर उसी समस्या तक पहुँचती है, उसी प्रक्रिया को दूसरे भावस्तर से देखती है और अपने अनजान में ही प्रश्न के ऐसे सन्दर्भ उद्घाटित करती है जो पूरक सिद्ध होते हैं। पर यह सब उस के अनजान में में होता है क्योंकि उस की मूलवृत्ति संशय या जिज्ञासा नहीं, भावाकुल तन्मयता है।
कनुप्रिया की सारी प्रतिक्रियाएँ उसी तन्मयता की विभिन्न स्थितियाँ हैं।


पहला गीत


ओ पथ के किनारे खड़े छायादार पावन अशोक-वृक्ष
तुम यह क्यों कहते हो कि तुम मेरे चरणों के स्पर्श की प्रतीक्षा में
जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे तुम को क्या मालूम कि
मैं कितनी बार केवल तुम्हारे लिए-धूल में मिली हूँ
धरती में गहरे उतर जड़ों के सहारे
तु्म्हारे कठोर तने के रेशों में कलियाँ बन, कोंपल बन,सौरभ बन,लाली बन-
चुपके से सो गयी हूँ
कि कब मधुमास आये और तुम कब मेरे 
प्रस्फुटन से छा जाओ !

फिर भी तुम्हें याद नहीं आया, नहीं आया,
तब तुम को मेरे इन जावक-रचित पाँवों ने
केवल यह स्मरण करा दिया कि मैं तुम्हीं में हूँ
तुम्हारे ही रेशे-रेशे में सोयी हुई-
और अब समय आ गया कि
मैं तुम्हारी नस-नस में पंख पसार कर उडूँगी
और तुम्हारी डाल-डाल में गुच्छे-गुच्छे लाल-लाल
कलियाँ बन खिलूँगी !
ओ पथ के किनारे खड़े
छायादार पावन अशोक-वृक्ष
तुम यह क्यों कहते हो कि
तुम मेरी ही प्रतीक्षा में
कितने ही जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे !


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बंद गली का आखिरी मकान - धर्मवीर भारती


Band Gali ka Akhiri Makan by Dharmveer Bharti 

यह भी बहुत दिलचस्प ढंग है। वर्षों तक साहित्य में कहानी, नयी कहानी, साठोत्तरी कहानी, अकहानी आदि-आदि को लेकर बहस चलती रहे। लिखनेवाला चुप रहे। वर्षों तक चुप रहे और फिर चुपके से एक कहानी लिखकर प्रकाशित करा दे, और वही उसका घोषणा-पत्र हो, गोया उसने सारे वाद-विवाद के बीच एक रचनात्मक कीर्तिमान स्थापित कर दिया हो, कि देखो यह है कहानी..बन्द गली का आखिरी मकान, प्रकाशित होने पर जो तमाम पत्र लेखक को मिले उनमें से एक पत्र का यह अंश भारती की कथा-यात्रा की दिलचस्प झलक पेश करता है। भारती ने वर्षों के अन्तराल पर इस संकलन की कहानियाँ लिखी लेकिन हर कहानी अपनी जगह पर मुकम्मिल एक? क्लासिक? बनती गयी। ये कहानियाँ आप केवल पढ़कर पूरी नहीं करते,यो कहानियाँ कहीं बहुत गहरे पैठकर आपकी जीवन-दृष्टि को पूरी और गहरी बना जाती है। इनमें कुछ ऐसा है जो आप पढ़कर ही जान पाएँगे। प्रस्तुत है इस कृति का नवीन संस्करण।

गुलकी बन्नो

‘‘ऐ मर कलमुँहे !’ अकस्मात् घेघा बुआ ने कूड़ा फेंकने के लिए दरवाजा खोला और चौतरे पर बैठे मिरवा को गाते हुए देखकर कहा, ‘‘तोरे पेट में फोनोगिराफ उलियान बा का, जौन भिनसार भवा कि तान तोड़ै लाग ? राम जानै, रात के कैसन एकरा दीदा लागत है !’’ मारे डर के कि कहीं घेघा बुआ सारा कूड़ा उसी के सर पर न फेक दें, मिरवा थोड़ा खिसक गया और ज्यों ही घेघा बुआ अन्दर गयीं कि फिर चौतरे की सीढ़ी पर बैठ, पैर झुलाते हुए उसने उल्टा-सुल्टा गाना शुरू कर किया, ‘‘तुमें बछ याद कलते अम छनम तेरी कछम !’’ मिरवा की आवाज़ सुनकर जाने कहाँ से झबरी कुतिया भी कान-पूँछ झटकारते आ गयी और नीचे सड़क पर बैठकर मिरवा का गाना बिलकुल उसी अन्दाज़ में सुनने लगी जैसे हिज़ मास्टर्स वॉयस के रिकार्ड पर तसवीर बनी होती है।


अभी सारी गली में सन्नाटा था। सबसे पहले मिरवा (असली नाम मिहिरलाल) जागता था और आँख मलते-मलते घेघा बुआ के चौतरे पर आ बैठता था। उसके बाद झबरी कुतिया, फिर मिरवा की छोटी बहन मटकी और उसके बाद एक-एक कर गली के तमाम बच्चे-खोंचेवाली का लड़का मेवा, ड्राइवर साहब की लड़की निरमल, मनीजर साहब के मुन्ना बाबू-सभी आ जुटते थे। जबसे गुलकी ने घेघा बुआ के चौतरे पर तरकारियों की दुकान रखी थी तब से यह जमावड़ा वहाँ होने लगा था। उसके पहले बच्चे हकीमजी के चौतरे पर खेलते थे। धूप निकलते गुलकी सट्टी से तरकारियाँ ख़रीदकर अपनी कुबड़ी पीठ पर लादे, डण्डा टेकती आती और अपनी दुकान फैला देती। मूली, नीबू, कद्दू, लौकी, घिया-बण्डा, कभी-कभी सस्ते फल ! मिरवा और मटकी जानकी उस्ताद के बच्चे थे जो एक भंयकर रोग में गल-गलकर मरे थे और दोनों बच्चे भी विकलांग, विक्षिप्त और रोगग्रस्त पैदा हुए थे। सिवा झबरी कुतिया के और कोई उनके पास नहीं बैठता था और सिवा गुलकी के कोई उन्हें अपनी देहरी या दुकान पर चढ़ने नहीं देता था।


आज भी गुलकी को आते देखकर पहले मिरवा गाना छोड़कर, ‘‘छलाम गुलकी !’’ और मटकी अपने बढ़ी हुई तिल्लीवाले पेट पर से खिसकता हुआ जाँघिया सँभालते हुए बोली, ‘‘एक ठो मूली दै देव ! ए गुलकी !’’ गुलकी पता नहीं किस बात से खीजी हुई थी कि उसने मटकी को झिड़क दिया और अपनी दुकान लगाने लगी। झबरी भी पास गयी कि गुलकी ने डण्ड उठाया। दुकान लगाकर वह अपनी कुबड़ी पीठ दुहराकर बैठ गयी और जाने किसे बुड़बुड़ाकर गालियाँ देने लगी। मटकी एक क्षण चुपचाप रही फिर उसने रट लगाना शुरू किया, ‘‘एक मूली ! एक गुलकी !...एक’’ गुलकी ने फिर झिड़का तो चुप हो गयी और अलग हटकर लोलुप नेत्रों से सफेद धुली हुई मूलियों को देखने लगी। इस बार वह बोली नहीं। चुपचाप उन मूलियों की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि गुलकी चीख़ी, ‘‘हाथ हटाओ। छूना मत। कोढ़िन कहीं की ! कहीं खाने-पीने की चीज देखी तो जोंक की तरह चिपक गयी, चल इधर !’’ मटकी पहले तो पीछे हटी पर फिर उसकी तृष्णा ऐसी अदम्य हो गयी कि उसने हाथ बढ़ाकर एक मूली खींच ली। गुलकी का मुँह तमतमा उठा और उसने बाँस की खपच्ची उठाकर उसके हाथ पर चट से दे मारी ! मूली नीचे गिरी और हाय ! हाय ! हाय !’’ कर दोनों हाथ झटकती हुई मटकी पाँव पटकपटक कर रोने लगी। ‘‘जावो अपने घर रोवो। हमारी दुकान पर मरने को गली-भर के बच्चे हैं-’’ गुलकी चीख़ी ! ‘‘दुकान दैके हम बिपता मोल लै लिया। छन-भर पूजा-भजन में भी कचरघाँव मची रहती है !’’ अन्दर से घेघा बुआ ने स्वर मिलाया। ख़ासा हंगामा मच गया कि इतने में झबरी भी खड़ी हो गयी और लगी उदात्त स्वर में भूँकने। ‘लेफ्ट राइट ! लेफ्ट राइट !’ चौराहे पर तीन-चार बच्चों का जूलूस चला आ रहा था। आगे-आगे दर्जा ‘ब’ में पढ़नेवाले मुन्ना बाबू नीम की सण्टी को झण्डे की तरह थामे जलूस का नेतृत्व कर रहे थे, पीछे थे मेवा और निरमल। जलूस आकर दूकान के सामने रूक गया। गुलकी सतर्क हो गयी। दुश्मन की ताक़त बढ़ गयी थी।

मटकी खिसकते-खिसकते बोली, ‘‘हमके गुलकी मारिस है। हाय ! हाय ! हमके नरिया में ढकेल दिहिस। अरे बाप रे !’’ निरमल, मेवा, मुन्ना, सब पास आकर उसकी चोट देखने लगे। फिर मुन्ना ने ढकेलकर सबको पीछे हटा दिया और सण्टी लेकर तनकर खड़े हो गये। ‘‘किसने मारा है इसे !’’

‘‘हम मारा है !’’ कुबड़ी गुलकी ने बड़े कष्ट से खड़े होकर कहा, ‘‘का करोगे ? हमें मारोगे !’’ मारोगे !’’ मारेंगे क्यों नहीं ?’’ मुन्ना बाबू ने अकड़कर कहा। गुलकी इसका कुछ जवाब देती कि बच्चे पास घिर आये। मटकी ने जीभ निकालकर मुँह बिराया, मेवा ने पीछे जाकर कहा, ‘‘ए कुबड़ी, ए कुबड़ी, अपना कूबड़ दिखाओ !’’ और एक मुट्ठी धूल उसकी पीठ पर छोड़कर भागा। गुलकी का मुँह तमतमा आया और रूँधे गले से कराहते हुए उसने पता नहीं क्या कहा। किन्तु उसके चेहरे पर भय की छाया बहुत गहरी हो रही थी। बच्चे सब एक-एक मुट्ठी धूल लेकर शोर मचाते हुए दौड़े कि अकस्मात् घेघा बुआ का स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘ए मुन्ना बाबू, जात हौ कि अबहिन बहिनजी का बुलवाय के दुई-चार कनेठी दिलवायी !’’ ‘‘जाते तो हैं !’’ मुन्ना ने अकड़ते हुए कहा, ‘‘ए मिरवा, बिगुल बजाओ।’’ मिरवा ने दोनों हाथ मुँह पर रखकर कहा, ‘‘धुतु-धुतु-धू।’’ जलूस आगे चल पड़ा और कप्तान ने नारा लगाया:

अपने देस में अपना राज ! 

गुलकी की दुकान बाईकाट !


नारा लगाते हुए जलूस गली में मुड़ गया। कुबड़ी ने आँसू पोंछे, तरकारी पर से धूल झाड़ी और साग पर पानी के छींटे देने लगी।

गुलकी की उम्र ज़्यादा नहीं थी। यही हद-से-हद पच्चीस-छब्बीस। पर चेहरे पर झुर्रियाँ आने लगी थीं और कमर के पास से वह इस तरह दोहरी हो गयी थी जैसे अस्सी वर्ष की बुढ़िया हो। बच्चों ने जब पहली बार उसे मुहल्ले में देखा तो उन्हें ताजुज्ब भी हुआ और थोड़ा भय भी। कहाँ से आयी ? कैसे आ गयी ? पहले कहाँ थी ? इसका उन्हें कुछ अनुमान नहीं था ? निरमल ने ज़रूर अपनी माँ को उसके पिता ड्राइवर से रात को कहते हुए सुना, ‘‘यह मुसीबत और खड़ी हो गयी। मरद ने निकाल दिया तो हम थोड़े ही यह ढोल गले बाँधेंगे। बाप अलग हम लोगों का रुपया खा गया। सुना चल बसा तो डरी कि कहीं मकान हम लोग न दखल कर लें और मरद को छोड़कर चली आयी। खबरदार जो चाभी दी तुमने !’’

‘‘क्या छोटेपन की बात करती हो ! रूपया उसके बाप ने ले लिया तो क्या हम उसका मकान मार लेंगे ? चाभी हमने दे दी है। दस-पाँच दिन का नाज-पानी भेज दो उसके यहाँ।’’

‘‘हाँ-हाँ, सारा घर उठा के भेज देव। सुन रही हो घेघा बुआ !’’


‘‘तो का भवा बहू, अरे निरमल के बाबू से तो एकरे बाप की दाँत काटी रही।’’ घेघा बुआ की आवाज़ आयी-‘‘बेचारी बाप की अकेली सन्तान रही। एही के बियाह में मटियामेट हुई गवा। पर ऐसे कसाई के हाथ में दिहिस की पाँचै बरस में कूबड़ निकल आवा।’’

‘‘साला यहाँ आवे तो हण्टर से ख़बर लूँ मैं।’’ ड्राइवर साहब बोले, ‘‘पाँच बरस बाद बाल-बच्चा हुआ। अब मरा हुआ बच्चा पैदा हुआ तो उसमें इसका क्या कसूर ! साले ने सीढ़ी से ढकेल दिया। जिन्दगी-भर के लिए हड्डी खराब हो गयी न ! अब कैसे गुजारा हो उसका ?’’

‘‘बेटवा एको दुकान खुलवाय देव। हमरा चौतरा खाली पड़ा है। यही रूपया दुइ रूपया किराया दै देवा करै, दिन-भर अपना सौदा लगाय ले। हम का मना करित है ? एत्ता बड़ा चौतरा मुहल्लेवालन के काम न आयी तो का हम छाती पर धै लै जाब ! पर हाँ, मुला रुपया दै देव करै।’’


दूसरे दिन यह सनसनीख़ेज ख़बर बच्चों में फैल गयी। वैसे तो हकीमजी का चबूतरा पड़ा था, पर वह कच्चा था, उस पर छाजन नहीं थी। बुआ का चौतरा लम्बा था, उस पर पत्थर जुड़े थे। लकड़ी के खम्भे थे। उस पर टीन छायी थी। कई खेलों की सुविधा थी। खम्भों के पीछे किल-किल काँटे की लकीरें खींची जा सकती थीं। एक टाँग से उचक-उचककर बच्चे चिबिड्डी खेल सकते थे। पत्थर पर लकड़ी का पीढ़ा रखकर नीचे से मुड़ा हुआ तार घुमाकर रेलगाड़ी चला सकते थे। जब गुलकी ने अपनी दुकान के लिए चबूतरों के खम्भों में बाँस-बाँधे तो बच्चों को लगा कि उनके साम्राज्य में किसी अज्ञात शत्रु ने आकर क़िलेबन्दी कर ली है। वे सहमे हुए दूर से कुबड़ी गुलकी को देखा करते थे। निरमल ही उसकी एकमात्र संवाददाता थी और निरमल का एकमात्र विश्वस्त सूत्र था उसकी माँ। उससे जो सुना था उसके आधार पर निरमल ने सबको बताया था कि यह चोर है। इसका बाप सौ रूपया चुराकर भाग गया। यह भी उसके घर का सारा रूपया चुराने आयी है। ‘‘रूपया चुरायेगी तो यह भी मर जाएगी।’’ मुन्ना ने कहा, ‘‘भगवान सबको दण्ड देता है।’’ निरमल बोली ‘‘ससुराल में भी रूपया चुराये होगी।’’ मेवा बोला ‘‘अरे कूबड़ थोड़े है ! ओही रूपया बाँधे है पीठ पर। मनसेधू का रूपया है।’’ ‘‘सचमुच ?’’ निरमल ने अविश्वास से कहा। ‘‘और नहीं क्या कूबड़ थोड़ी है। है तो दिखावै।’’ मुन्ना द्वारा उत्साहित होकर मेवा पूछने ही जा रहा था कि देखा साबुनवाली सत्ती खड़ी बात कर रही है गुलकी से-कह रही थी, ‘‘अच्छा किया तुमने ! मेहनत से दुकान करो। अब कभी थूकने भी न जाना उसके यहाँ। हरामजादा, दूसरी औरत कर ले, चाहे दस और कर ले। सबका खून उसी के मत्थे चढ़ेगा। यहाँ कभी आवे तो कहलाना मुझसे। इसी चाकू से दोनों आँखें निकाल लूँगी !’’

बच्चे डरकर पीछे हट गये। चलते-चलते सत्ती बोली, ‘‘कभी रूपये-पैसे की जरूरत हो तो बताना बहिना !’’


कुछ दिन बच्चे डरे रहे। पर अकस्मात् उन्हें यह सूझा कि सत्ती को यह कुबड़ी डराने के लिए बुलाती है। इसने उसके गु़स्से में आग में घी का काम किया। पर कर क्या सकते थे। अन्त में उन्होंने एक तरीक़ा ईजाद किया। वे एक बुढ़िया का खेल खेलते थे। उसको उन्होंने संशोधित किया। मटकी को लैमन जूस देने का लालच देकर कुबड़ी बनाया गया। वह उसी तरह पीठ दोहरी करके चलने लगी। बच्चों ने सवाल जवाब शुरू कियेः

‘‘कुबड़ी-कुबड़ी का हेराना ?’’

‘‘सुई हिरानी।’’

‘‘सुई लैके का करबे’’

‘‘कन्था सीबै! ’’

‘‘कन्था सी के का करबे ?’’

‘‘लकड़ी लाबै !’’

‘‘लकड़ी लाय के का करबे ?’’

‘‘भात पकइबे! ’’

‘‘भात पकाये के का करबै ?’’

‘‘भात खाबै !’’

‘‘भात के बदले लात खाबै।’’

और इसके पहले कि कुबड़ी बनी हुई मटकी कुछ कह सके, वे उसे जोर से लात मारते और मटकी मुँह के बल गिर पड़ती, उसकी कोहनिया और घुटने छिल जाते, आँख में आँसू आ जाते और ओठ दबाकर वह रूलाई रोकती। बच्चे खुशी से चिल्लाते, ‘‘मार डाला कुबड़ी को । मार डाला कुबड़ी को।’’ गुलकी यह सब देखती और मुँह फेर लेती।


एक दिन जब इसी प्रकार मटकी को कुबड़ी बनाकर गुलकी की दुकान के सामने ले गये तो इसके पहले कि मटकी जबाव दे, उन्होंने ने अनचिते में इतनी ज़ोर से ढकेल दिया कि वह कुहनी भी न टेक सकी और सीधे मुँह के बल गिरी। नाक, होंठ और भौंह ख़ून से लथपथ हो गये। वह ‘‘हाय ! हाय !’’ कर इस बुरी तरह चीख़ी कि लड़के कुबड़ी मर गयी चिल्लाते हुए सहम गये और हतप्रभ हो गये। अकस्मात् उन्होंने देखा की गुलकी उठी । वे जान छोड़ भागे। पर गुलकी उठकर आयी, मटकी को गोद में लेकर पानी से उसका मुँह धोने लगी और धोती से खून पोंछने लगी। बच्चों ने पता नहीं क्या समझा कि वह मटकी को मार रही है, या क्या कर रही है कि वे अकस्मात् उस पर टूट पड़े। गुलकी की चीख़े सुनकर मुहल्ले के लोग आये तो उन्होंने देखा कि गुलकी के बाल बिखरे हैं और दाँत से ख़ून बह रहा है, अधउघारी चबूतरे से नीचे पड़ी है, और सारी तरकारी सड़क पर बिखरी है। घेघा बुआ ने उसे उठाया, धोती ठीक की और बिगड़कर बोलीं, ‘‘औकात रत्ती-भर नै, और तेहा पौवा-भर। आपन बखत देख कर चुप नै रहा जात। कहे लड़कन के मुँह लगत हो ?’’ लोगों ने पूछ तो कुछ नहीं बोली। जैसे उसे पाला मार गया हो। उसने चुपचाप अपनी दुकान ठीक की और दाँत से खू़न पोंछा, कुल्ला किया और बैठ गयी।

उसके बाद अपने उस कृत्य से बच्चे जैसे खु़द सहम गये थे। बहुत दिन तक वे शान्त रहे। आज जब मेवा ने उसकी पीठ पर धूल फेंकी तो जैसे उसे खू़न चढ़ गया पर फिर न जाने वह क्या सोचकर चुप रह गयी और जब नारा लगाते जूलूस गली में मुड़ गया तो उसने आँसू पोंछे, पीठ पर से धूल झाड़ी और साग पर पानी छिड़कने लगी। लड़के का हैं गल्ली के राक्षस हैं !’’ घेघा बुआ बोलीं। ‘‘अरे उन्हें काहै कहो बुआ ! हमारा भाग भी खोटा है !’’ गुलकी ने गहरी साँस लेकर कहा....।

इस बार जो झड़ी लगी तो पाँच दिन तक लगातार सूरज के दर्शन नहीं हुए। बच्चे सब घर में क़ैद थे और गुलकी कभी दुकान लगाती थी, कभी नहीं, राम-राम करके तीसरे पहर झड़ी बन्द हुई। बच्चे हकीमजी के चौतरे पर जमा हो गये। मेवा बिलबोटी बीन लाया था और निरमल ने टपकी हुई निमकौड़ियाँ बीनकर दुकान लगा ली थी और गुलकी की तरह आवाज़ लगा रही थी, ‘‘ले खीरा, आलू, मूली, घिया, बण्डा !’’ थोड़ी देर में क़ाफी शिशु-ग्राहक दुकान पर जुट गये। अकस्मात् शोरगुल से चीरता हुआ बुआ के चौतरे से गीत का स्वर उठा बच्चों ने घूम कर देखा मिरवा और मटकी गुलकी की दुकान पर बैठे हैं। मटकी खीरा खा रही है और मिरवा झबरी का सर अपनी गोद में रखे बिलकुल उसकी आँखों में आँखें डालकर गा रहा है।


तुरन्त मेवा गया और पता लगाकर लाया कि गुलकी ने दोनों को एक –एक अधन्ना दिया है दोनों मिलकर झबरी कुतिया के कीड़े निकाल रहे हैं। चौतरे पर हलचल मच गयी और मुन्ना ने कहा, ‘‘निरमल ! मिरवा-मटकी को एक भी निमकौड़ी मत देना। रहें उसी कुबड़ी के पास !’’ ‘‘हाँ जी !’’ निरमल ने आँख चमकाकर गोल मुंह करके कहा, ‘‘हमार अम्माँ कहत रहीं उन्हें छुयो न ! न साथ खायो, न खेलो। उन्हें बड़ी बुरी बीमारी है। आक थू !’’ मुन्ना ने उनकी ओर देखकर उबकायी जैसा मुँह बनाकर थूक दिया।

गुलकी बैठी-बैठी सब समझ रही थी और जैसे इस निरर्थक घृणा में उसे कुछ रस-सा आने लगा था। उसने मिरवा से कहा, ‘‘तुम दोनों मिल के गाओ तो एक अधन्ना दें। खूब जोर से !’’ भाई-बहन दोनों ने गाना शुरू किया-माल कताली मल जाना, पल

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Wednesday 11 November 2015

आखरी मकसद- सुरेन्द्र मोहन पाठक

Akhri Maqsad by Surendra Mogan Pathak 

कहते हैं दुनिया में हर किसी का कहीं न कहीं कोई न कोई डबल होता है ! सुधीर कोहली की बदकिस्मती थी कि उसका डबल दिल्ली में ही निकल आया था ! और अब उन दोनों में से एक का मरना लाजिमी था !

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पृच्छन्न (महासमर भाग 6) - नरेंद्र कोहली


Prichhann (Mahasamar 6) by Narendra Kohli 

महाकाल असंख्य वर्षों की यात्रा कर चुका है, किन्तु न मानव की प्रकृति परिवर्तित हुई है, न प्रकृति के नियम। उसका ऊपरी आवरण कितना भी भिन्न क्यों न दिखाई देता हो, मनुष्य का मनोविज्ञान आज भी वही है, जो सहस्त्रों वर्ष पूर्व था।

बाह्य संसार के सारे घटनात्मक संघर्ष वस्तुतः मन के सूक्ष्म विकारों के स्थूल रूपांतरण मात्र हैं। अपनी मर्यादा का अतिक्रमण कर जाए, तो ये मनोविकार, मानसिक विकृतियों में परणीत हो जाते हैं। दुर्योधन इसी प्रक्रिया का शिकार हुआ है। अपनी आवश्यकता भर पाकर वह संतुष्ट नहीं हुआ। दूसरों का सर्वस्व छीनकर भी वह शांत नहीं हुआ। पांडवों की पीड़ा उसके सुख की अनिवार्य शर्त थी। इसलिए वंचित पांडवों को पीड़ित और अपमानित कर सुख प्राप्त करने की योजना बनाई गई। घायल पक्षी को तड़पाकर बच्चों को क्रीड़ा का-सा-आनन्द आता है। मिहिर कुल को अपने युद्धक गजों को पर्वत से खाई में गिरकर उनके पीड़ित चीत्कारों को सुनकर असाधारण सुख मिला था। अरब शेखों को ऊँटों की दौड़ में, उनकी पीठ पर बैठे बच्चों की अस्थियों और पीड़ा से चिल्लाने को देख-सुनकर सुख मिलता है। महासमर-6 में मनुष्य का मन अपने ऐसे ही प्रच्छन्न भाव उद्घाटित कर रहा है।


दुर्वासा ने बहुत तपस्या की है, किंतु न अपना अहंकार जीता है न क्रोध। एक अहंकारी और परपीड़क व्यक्तित्व, प्रच्छन्न रूप से उस तापस के भीतर विद्यमान है। वह किसी के द्वार पर आता है, तो धर्म देने के लिए नहीं। वह तमोगुणी तथा रजोगुणी लोगों को वरदान देने के लिए और सतोगुणी लोगों को वंचित करने के लिए आता है। पर पांडव पहचानते हैं कि संन्यासियों का समूह, जो उनके द्वार पर आया है सात्विक संन्यासियों का समूह नहीं है। यह एक प्रच्छन्न टिड्डी दल है जो उनके अन्न भण्डार को समाप्त करने आया है। ताकि जो पांडव दुर्योधन के शस्त्रों से न मारे जा सके, वे अपनी भूख से मर जाएँ।


दुर्योधन के सुख में प्रच्छन्न रूप से बैठा है, दुख और युधिष्ठिर की अव्यावहारिकता में प्रच्छन्न रूप से बैठा है धर्म। यह माया की सृष्टि है जो प्रकट रूप में दिखाई देता है, वह वस्तुतः होता नहीं, और जो वर्तमान है वह कहीं दिखाई नहीं देता।

पांडवों का आज्ञातवास, महाभारत-कथा का एक बहुत आकर्षक स्थल है। दुर्योधन की ग्रध्र दृष्टि से पांडव कैसे छिपे रह सके ? अपने आज्ञातवास के लिए पांडवों ने विराटनगर को ही क्यों चुना ? पांडवों के शत्रुओं में प्रच्छन्न मित्र कहां थे और मित्रों में प्रच्छन्न शत्रु कहाँ पनप रहे थे ?...ऐसे ही अनेक प्रश्नों को समेटकर आगे बढ़ती है, महासमर के इस छठे खंड ‘प्रच्छन्न की कथा। पाठक पूछता है कि यदि उसे महाभारत की ही कथा पढ़नी है तो वह व्यास कृत मूल महाभारत ही क्यों न पढ़े, नरेन्द्र कोहली का उपन्यास क्यों पढ़े ? वह यह भी पूछता है कि उसे उपन्यास ही पढ़ना है तो वह समसामायिक उपन्यास क्यों न पढ़े, नरेन्द्र कोहली का ‘महासमर’ ही क्यों पढ़े ??


‘महाभारत’ हमारा काव्य भी है, इतिहास भी और आध्यात्म भी। हमारे प्राचीन ग्रंथ शाश्वत सत्य की चर्चा करते हैं। वे किसी कालखंड के सीमित सत्य में आबद्ध नहीं हैं, जैसा कि यूरोपीय अथवा यूरोपीयकृत मस्तिष्क अपने अज्ञान अथवा बाहरी प्रभाव को मान बैठा है। नरेन्द्र कोहली ने न महाभारत को नए संदर्भों में लिखा है, न उसमें संशोधन करने का कोई दावा है। न वे पाठक को महाभारत समझाने के लिए उसकी व्याख्या मात्र कर रहे हैं। वे यह नहीं मानते कि महाकाल की यात्रा खंडों में विभाजित है, इसलिए जो घटनाएँ घटित हो चुकीं, उनसे अब हमारा कोई संबंध नहीं है। न तो प्रकृति के नियम बदले हैं, न मनुष्य का मनोविज्ञान। मनुष्य की अखंड कालयात्रा को इतिहास खंडों में बाँटे तो बाँटे, साहित्य उन्हें विभाजित नहीं करता, यद्यपि ऊपरी आवरण सदा ही बदलते रहते हैं।


महाभारत की कथा भारतीय चिंतन और भारतीय संस्कृति की अमूल्य थाती है। नरेन्द्र कोहली ने उसे ही अपने उपन्यास का आधार बनाया है। महासमर की कथा मनुष्य के उस अनवरत युद्ध की कथा है, जो उसे अपने बाहरी और भीतरी शत्रुओं के साथ निरंतर करना पड़ता है। वह उस संसार में रहता है, जिसमें चारों ओर लाभ और स्वार्थ की शक्तियाँ संघर्षरत हैं। बाहर से अधिक उसे अपने भीतर लड़ना पड़ता है। परायों से अधिक उसे अपनों से लड़ना पड़ता है। और वह अपने धर्म पर टिका रहता है तो वह इसी देह में स्वर्ग जा सकता है। इसका आश्वासन ‘महाभारत’ देता है। लोभ, त्रास और स्वार्थ के विरूद्ध धर्म के इस सात्विक युद्ध को नरेन्द्र कोहली एक आधुनिक और मौलिक उपन्यास के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।... और वह है ‘महासमर’। ‘प्रच्छन्न’ महासमर का छठा खंड है। आप इसे पढ़ें और स्वयं अपने आप से पूछें, आपने इतिहास पढ़ा ? पुराण पढ़ा ? धर्मग्रंथ पढ़ा अथवा एक रोचक उपन्यास ? इसे पढ़कर आपका मनोरंजन हुआ ? आपका ज्ञान बढ़ा ?अथवा आपका विकास हुआ ? क्या आपने इससे पहले कभी ऐसा कुछ पढ़ा था ?

डाउनलोड करें- पृच्छन्न

Sunday 8 November 2015

बबूसा - अनिल मोहन

Babusa (Anil Mohan) बबूसा सीरीज़ का पहला उपन्यास 

हमारी पृथ्वी पर अभी भी ऐसा बहुत कुछ है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं करते! हम दूसरे ग्रहों को तो खोज रहे हैं परंतु पृथ्वी से अंजान हैं अभी! इसी पृथ्वी की एक जाति की चमत्कारी दास्तान है ये, जिसका वास्ता, कहीं दूर दुसरी दुनिया के एक ग्रह से है! ये दास्तान देवराज चौहान से ही सैकड़ों बरसों पहले शुरू हुई थी और अब उसका रुख फिर देवराज चौहान की तरफ मुड चुका है!

डाउनलोड करें- बबूसा

Thursday 5 November 2015

अरब देश की अजब कथाएँ


Arab Desh ki Ajab Kathaen 

हर देश की अपनी संस्कृति होती है| अरब देश हमेशा से ही बहुत आकर्षक रहा है क्योंकि वाहा का रहें सहन और वाहा की तहज़ीब यहा से अलग है| इसी वजह से वाहा की कहानियाँ भी बहुत अनोखी और पढ़ने में मज़ेदार होती है| रहस्य से पारी पूर्ण और लुभावनी ये कहानियाँ ज़रूर पढ़नी चाहिए

डाउनलोड करें- अरब देश की अजब कथाएं

Wednesday 4 November 2015

डायन (वेदप्रकाश शर्मा)

Dayan by Ved Prakash Sharma
डायन ...एक औरत के पति की मृत्यु हो गई। उसकी बुद्धि भ्रष्ट हुई तो पति को जिंदा करने के लिए दूसरों के बच्चांे की बलि देने लगी। पर उसे मालूम नहीं था कि किसी की आंखें सपनों में उसकी करतूतें देख रही हैं। फिर सपने देखने वाले और उस औरत के बीच जंग शुरु हुई, मगर वे तो सिर्फ बहाना थे, असली जंग तो माता दुर्गा और डायन के बीच थी और जब मां जगदम्बा अपने रौद्र रूप में आईं तो काली शक्तियों के चेहरे सफेद पड़ गए।

डायन-२ में एक ऐसे माँ की कहानी लेकर आया है
जिसके पास शरीर नहीं था । जो भावनाओं के भवर में बह रही थी और जिसे पारलौकिक दुनिया
की दुष्टात्माओं से टकराना था ।


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डाउनलोड करें- डायन भाग 2

Monday 2 November 2015

बीवी का नशा (वेद प्रकाश शर्मा)


विभा जिंदल सीरीज़ 

Biwi ka Nasha (Ved Prakash Sharma) 

लोग कहते थे की वह अपनी बीवी के नशे में रहता है । सच था भी यही । बीवी को एक नेकलेस से नवाजने के लिए उसने एक हत्या कर दी और उस हत्या के जुर्म में उसकी बीवी ही पकड़ी गई । अब वह साबित करना चाहता था कि हत्या उसकी बीवी ने नहीं बल्कि उसी ने की है मगर यह बात वह साबित नहीं कर पा रहा था ।

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दूर की कौड़ी (वेद प्रकाश शर्मा)


Door Ki Kaudi (Ved Prakash Sharma)

ऐसा चालबाज़ शख्स, जो दूसरों से अपने मन माफिक चालें चलवाता था,

जबकि वे समझते थे कि ऐसा वे अपनी मर्ज़ी से कर रहे है ।

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Sunday 1 November 2015

वर्दी वाला गुंडा (वेद प्रकाश शर्मा)


Vardi Wala Gunda by Ved Prakash Sharma

वर्दी वाला गुंडा वेद प्रकाश शर्मा का सफलतम थ्रिलर उपन्यास है। इस उपन्यास की आजतक लगभग 8 करोड़ प्रतियाँ बिक चुकी हैं। भारत में जनसाधारण में लोकप्रिय थ्रिलर उपन्यासों की दुनिया में यह उपन्यास "क्लासिक" का दर्जा रखता है।


डाउनलोड करें- वर्दी वाला गुंडा

कृष्ण कुंजी - अश्विन सांघी


Krishna Kunji (Krushna Key) by Ashwin Sanghi

5000 साल पहले एक चलमतकारी वयक्तित्व का जन्म हुआ था धरती पर, जिनका नाम कृष्ण रखा गया था। मानवता को भय था की यदी प्रभु कृष्ण का निधन हो गया तो बुरायी और दानव वापस से धरती पर राज करने लगेंगे, पर उनको ये विश्वास दिलाया गया कि जब भी ज़रूरत होगी, प्रभु फिर से धरती पर जन्म लेंगे - कलयुग में। नये दौर में एक गरीब लड़का जन्म लेता है और ये सोचते हुए बड़ा होता है कि वही भगवान का नया अवतार है। पर असल में वो एक सेरियल किलर है। इस पुस्तक में जहाँ शुरुअत होती है एक व्यक्ति से जो बहुत सूझ बूझ के साथ हत्या करता है, वही एक साजिश भी सामने आती है - कृष्ण कि विरासत जो वो मनुष्यता के लिये छोड़ गए थे। क्या इस विरसत का पता लगाया जा पाएगा?

डाउनलोड करें- कृष्ण कुंजी

जिन खोजा तिन पाइया

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रतिष्ठित लेखक अयोध्याप्रसाद गोयलीय के इस अप्रतिम कथा-संग्रह, ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ को यदि हिन्दी का हितोपदेश कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। वहीं अनुभव, वहीं ज्ञान, वही विवेक है इसमें।


अनुभवी लेखक गोयलीय जी ने जीवन और जगत में जो देखा, सुना, पढ़ा और समझा, प्रस्तुत कृति में सरल सुबोध शैली में सँजोकर रख दिया हैं। इसमें जीवन-निर्माण एवं उत्साह, प्रेरणा और शक्ति प्रदान करने वाली 102 लघु-कथाएँ हैं। इनका स्वरूप लघु है पर ज्ञान-गुम्फन की दृष्टि से सागर जैसी प्रौढ़ता, विशालता तथा विस्तार है। इनमें बहुत-सी कहानियाँ मनुष्य के अन्तर की उस ऊँचाई को पाठक के सामने पेश करती हैं जो उसे सचमुच मनुष्य बनाती हैं। हिन्दी के सहृदय पाठक को समर्पित है भारतीय ज्ञानपीठ की एक सुन्दर कृति, नयी साज-सज्जा के साथ।


आमुख

गोयलीयजी-की क़लम ने अपनी जादूगरी से हिन्दी-पाठकों को मोह रखा है। ‘शेर-ओ-शायरी’ और ‘शेर-ओ-सुख़न’ उनकी ऐसी कृतियाँ हैं जो साहित्य में सदा स्मरणीय रहेंगी। दो वर्ष पूर्व जब उनकी पुस्तक ‘गहरे पानी पैठ’ प्रकाशित हुई तो साधारण पाठक और असाधारण आलोचक- सभी उसकी लोकप्रिय विषय-वस्तु और रोचक शैली से प्रभावित हुए। चुटीली कहानियाँ, अद्भुत घटनाएँ, मज़ेदार चुटकुले, दिलचस्प लतीफ़े, गहरे अनुभव, पढ़े-सुने क़िस्से- सभी कुछ इस ढंग से लिखे गये हैं कि पाठकों का ज्ञान, प्रेरणा और मनोरंजन एक जगह एक साथ मिल जाता है। 

गोयलीयजी की यह नयी कृति ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ भी उतनी ही ज्ञानवर्द्धक, प्रेरक और रोचक है, जितनी ‘गहरे पानी पैठ’; बल्कि इसमें शैली का निखार कुछ अधिक ही है। इसे बालक तो चाव से पढ़ ही सकते हैं, युवकों को भी इससे प्रेरणा और दृष्टि मिलेगी। बुर्ज़ुर्गों को इसमें उनके अपने अनुभवों के प्रत्यावर्तन और प्रतिध्वनि की प्रतीति होगी। चूँकि ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ में केवल वहीं है जो लेखक ने स्वयं देखा है, दूसरों से सुना है, पुस्तकों में पढ़ा है या बुद्धि से समझा है, इसलिए इसमें बहुत कुछ ऐसा होना चाहिए जो आपने भी देखा-सुना या पढ़ा-गुना हो। पर देखने-देखने में, सुनने-सुनने में और पढ़ने-पढ़ने में अन्तर है। अपने-अपने दृष्टिकोण से वस्तु को समझाने में तो अन्तर होना ही हुआ।

हम-आप भी रात-दिन में सफ़र करते हैं, पर हममें से कितने ऐसे हैं, जिन्हें सन्तोषी थानेदार, त्यागी भिखारी, विनयशील सन्यासी, पैसे को हाथ न लगाने वाला पानीपाँड़े और दो दिन भूखे रहकर भी कर्ज़ के पैसों को बिना बरते लौटानेवाला शानदार चपरासी सहयात्री के रूप में मिलते हैं। ऐसे व्यक्ति जो अभावों में रहकर मुस्कुराते हैं और दूसरों की अयाचित ‘कृपा’ को भी अपनी मुफ़लिसी की शान से ‘याचना-सा’ बना देते हैं- जिनको कुछ दे सकने में दाता अपने को उपकृत समझे ! यह बात नहीं कि गोयलीयजी को गिरहकट या उजलेपोश बदमाश नहीं मिलते-बहुत मिलते हैं। उनसे उचक्कों और गिरहकटों के क़िस्से सुनिए कि कैसे दिन-दहाड़े उनके देखते-देखते एक उचक्का यह कहकर बिस्तर-ट्रंक ले उड़ा कि ‘भाई साहब, गाड़ी आने में देर है; इज़ाजत दें तो बीवी-बच्चों को आपके ट्रंक-बिस्तरे पर बिठा दूँ।’ किस तरह एक ‘सज्जन’ बातों-बातों में अपना आगरे का पता बता चुकने के बाद पार्सल की रसीद भरने के लिए पार्कर पेन माँगकर सामने लिखते-लिखते चम्पत हो गये और उनकी दो रुपये की ख़ाली पेटी लिये-लिये गोयलीयजी क़ुली बने घूमते रहे पर किसी रेलवे अधिकारी ने टूटी ख़ाली पेटी को सँभालकर रखने की कृपा न दिखायी। इलाहाबाद के एक होटल में हम लोग ठहरे तो होटल के मैनेजर गोयलीयजी के ‘दोस्त’ बन गये। एक रोज़ शाम तक मैनेजर न लौटे तो बैरा ने शुबा डाल दिया कि कहीं मैनेजर किसी एक्सीडेंट की चपेट में न आ गये हों। अब गोयलीयजी जैसे कि तैसे उनकी तलाश में निकल पड़े। बहुत रात गये लौटने पर पता चला कि वास्तव में ‘एक्सीडेंट’ यह हुआ है कि गोयलयजी के पर्स, घड़ी और पेन मिलकर मैनेजर को भगा ले गये- क्योंकि पुलिस की ‘कोशिशों’ के बावजूद चारों में से किसी का पता न चला। दौड़-धूप में और पुलिस के चाय-पानी में सिर्फ़ पचास रुपये खर्च पड़े होंगे- सिर्फ़ पचास रुपये में ही ख़ूब मोटा फ़ाइल गोयलयजी की ख़ातिर पुलिस ने बना दिया था। आप मुस्कराएँगे और कहेंगे कि दो-चार क़िस्से तो इस तरह के हमारे साथ भी गुज़रे हैं। और सौ-पचास क़िस्से आपको अपने दोस्तों के भी याद आ जाएँगे। ....फिर आप चौंकेंगे और सोचेंगे कि दुनियाँ में घटनाएँ तो ज़्यादातर दूसरे ही प्रकार की घटती हैं, फिर गोयलयजी को इस तरह के थानेदार, भिक्षुक, पानीपाँड़े और चपरासी कहाँ से मिल जाते हैं, और कैसे मिल जाती है थर्ड क्लास में फूल-सी नाज़नी जो माथे पर हाथ रखकर सोयी हुई होती है तो उपमा सूझती है :


दमे-ख़ाब है दस्ते-नाज़ुक जबीं पर

किरन चाँद की गोद में सो रही है

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