Saturday 12 December 2015

निवेदन


साथियो
आप सभी को इंतज़ार कराने का मुझे खेद है।
सोमवार से मैं आपकी सेवा में पुनः प्रस्तुत रहूँगा।
आप सभी से एक निवेदन है
कृपया कोई सज्जन कमेंट के माध्यम से उन पुस्तकों की सूचि उपलब्ध कराने का कष्ट करें जो वास्तव में डाऊनलोड नहीं हो पा रही है। ताकि मैं जल्द से जल्द उन पुस्तकों को पुनः उपलब्ध करा सकूँ। जो पुस्तकें डाऊनलोड हो रही हैं उनका नाम कृपया ना देवें।
धन्यवाद्

Sunday 6 December 2015

वयं रक्षामः (आचार्य चतुरसेन)


Vayam Rakshamah (Acharya Chatursen)

 ‘वैशाली की नगरवधू’ लिखकर मैंने हिन्दी उपन्यासों के संबंध में एक नया मोड़ उपस्थित किया था कि अब हमारे उपन्यास केवल मनोरंजन तथा चरित्र-चित्रण-भर की सामग्री नहीं रह जाएँगे। अब यह मेरा उपन्यास है ‘वयं रक्षाम:’ इस दशा में अगला कदम है।

इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्य-दानव, आर्य-अनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृत-पुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवन-भर के अध्ययन का सार है।...

-आचार्य चतुरसेन

सकलकलोद्वासित-पक्षद्वय-सकलोपधा-विशुद्ध-मखशतपूत-प्रसन्नमूर्ति-स्थिरोन्नत-होमकरोज्ज्वल-

ज्योतिज्र्योतिर्मुख-स्वाधीनोदारसार-स्थगितनृपराजन्य-शतशतपरिलुण्ठन मौलिमाणिक्यरोचिचरण-प्रियवाचा-मायतन-साधुचरितनिकेतन-लोकाश्रयमार्गतरु-भारत-गणपतिभौमब्रह्ममहाराजाभिध-

श्रीराजेन्द्रप्रसादाय ह्यजातशत्रवे अद्य गणतन्त्राख्ये पुण्याहे भौमे माघमासे सिते दले तृतीयायां वैक्रमीये तलाधरेश्वरशून्यनेत्राब्दे निवेदयामि साञ्जलि:स्वीयं साहित्य-कृति वयं ‘रक्षाम:’ इति सामोदमहं चतुरसेन:।

मेरे हृदय और मस्तिष्क में भावों और विचारों की जो आधी शताब्दी की अर्जित प्रज्ञा-पूंजी थी, उन सबको मैंने ‘वयं रक्षाम:’ में झोंक दिया है। अब मेरे पास कुछ नहीं है। लुटा-पिटा-सा, ठगा-सा श्रान्त-कलान्त बैठा हूं। चाहती हूं-अब विश्राम मिले। चिर न सही, अचिर ही। परन्तु यह हवा में उड़ने का युग है। मेरे पिताश्री ने बैलगाड़ी में जीवन-यात्रा की थी, मेरा शैशव इक्का-टांगा-घोड़ों पर लुढ़कता तथा यौवन मोटर पर दौड़ता रहा। अब मोटर और वायुयान को अतिक्रान्त कर आठ सहस्त्र मील प्रति घंटा की चाल वाले राकेट पर पृथ्वी से पांच सौ मील की ऊंचाई पर मेरा वार्धक्य उड़ा चला जा रहा है। विश्राम मिले तो कैसे ? इस युग का तो विश्राम से आचू़ड़ वैर है। बहुत घोड़ो को, गधों को, बैलों को बोझा ढोते-ढोते बीच राह मरते देखा है। इस साहित्यकार के ज्ञानयज्ञ की पूर्णाहुति भी किसी दिन कहीं ऐसे ही हो जाएगी। तभी उसे अपने तप का सम्पूर्ण पुण्य मिलेगा। 

गत ग्यारह महीनों में दो-तीन घण्टों में अधिक नहीं सो पाया। सम्भवत: नेत्र भी इस ग्रन्थ की भेंट हो चुके हैं। शरीर मुर्झा गया है, पर हृदय आनन्द के रस में सराबोर है। यह अभी मेरा पैसठवां ही तो बसन्त है। फिर रावण जगदीश्वर मर गया तो क्या ? उसका यौवन, तेज, दर्प, दुस्साहस, भोग और ऐश्वर्य, जो मैं निरन्तर इन ग्यारह मासों में रात-दिन देखता हूं, उसके प्रभाव से कुछ-कुछ शीतल होते हुए रक्तबिन्दु अभी भी नृत्य कर उठते हैं। गर्म राख की भांति अभी भी उनमें गर्मी है। आग न सही, गर्म राख तो है।

डाउनलोड करें- वयं रक्षामः (पूर्वार्ध)

डाउनलोड करें- वयं रक्षामः (उत्तरार्ध)

विपथगा (अज्ञेय)


Vipathga (Agyey)

अज्ञेय जी का प्रथम कहानी संग्रह 

डाउनलोड करें- विपथगा

Thursday 3 December 2015

यथा संभव (शरद जोशी)

Yatha Sambhav (Sharad Joshi)

प्रख्यात व्यंग्यकार शरद जोशी हास्य व्यंग्य जगत के महत्वपूर्ण स्तम्भ रहे हैं। यथा संभव उनकी अभूतपूर्व कृतियों में से एक है।


व्यंग्य शब्द को साहित्य से जोड़ने अर्थात् व्यंग्य को साहित्य का दर्जा दिलाने में जिन इने-गिने लेखकों की भूमिका रही है उनमें शरद जोशी का नाम सबसे पहले आने वाले लेखकों में से एक है। अपनी चिर-परिचित शालीन भाषा में वे यही कह सकते थे कि-‘मैंने हिन्दी में व्यंग्य साहित्य का अभाव दूर करने की दिशा में ‘यथासम्भव’ प्रयास किया है।’ पर सच तो यह है कि उन्होंने इस दिशा में निश्चित योगदान दिया-गुणवत्ता और परिमाण, दोनों दृष्टियों से। उन्होंने नाचीज विषयों से लेकर गम्भीर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मसलों तक सबकी बाकायदा खबर ली है। रोज़मर्रा के विषयों में उनकी प्रतिक्रिया इतनी सटीक होती कि पाठक का आन्तरिक भावलोक प्रकाशित हो उठता। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि शरद जोशी ने हिन्दी के गम्भीर व्यंग्य को लाखों लोगों तक पहुँचाया।


प्रस्तुत कृति ‘यथासम्भव’ में उनके सम्पूर्ण साहित्य में से सौ बेहतरीन रचनाएँ, स्वयं उनके ही द्वारा चुनी हुई, संकलित हैं। 


उनका यह अपूर्व अनोखा संग्रह व्यंग्य-साहित्य के पाठकों के लिए अपरिहार्य है। दूसरे शब्दों में, ‘यथासम्भव’ का हवाला दिये बिना आधुनिक भारतीय व्यंग्य साहित्य की चर्चा करना ही सम्भव नहीं है।


डाउनलोड करें- यथा संभव

Tuesday 1 December 2015