Tuesday 21 June 2016

अज्ञातवास (श्रीलाल शुक्ल)


Agyatwas by Srilal Shukl

परस्तुत उपन्यास हमारे ब्लॉग के एक पाठक श्री हिमांशु जी द्वारा उपलब्ध कराई गई है। उन्हें कोटिशः धन्यवाद्।


श्रीलाल शुक्ल जी की लेखनी द्वारा शहर और गाँवों, दोनों के जीवन का अत्यंत सहज वर्णन

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

गाँव और शहर दोनों की कहानियाँ और एक साथ कहने में श्रीलाल शुक्ल माहिर है। और बहुत कम पृष्ठों में कहानी के भीतर कहानी इस तरह पिरोते चले जाते हैं कि पूरा पढ़े बिना पाठक चैन नहीं लेता। अज्ञातवास एक ऐसी ही अफसर श्रेणी के इंजीनियर की कहानी है जिसकी स्मृतियां एक चित्र को देखकर जाग उठती हैं और जो अपने स्वयं के मित्रों के जिस गांव में उसका डेरा है वहाँ के निवासियों के और अपनी बेटी के भी जीवन की घटनाओं को पर्त-दर-पर्त सामने रखती चली जाती हैं। उसकी पत्नी और उपपत्नी की कथा उपन्यास का चरम बिन्दु है जो बिलकुल अंत में जाकर स्पष्ट होता है। अज्ञातवास निश्चित रूप से एक श्रेष्ठ,पठनीय उपन्यास है।

प्रस्तावना

‘अज्ञातवास’ 1956-60 में लिखा गया था। यदि 1961 में श्री स.ही. वात्स्यायन की मुझे सहज कृपा न मिली होती और राजपाल एण्ड सन्ज़ एक अपेक्षाकृत नये लेखक के लिए कुछ ख़तरा-उठाने के लिए तैयार न हुए होते, तो शायद इसका उस वर्ष भी छपना मुश्किल होता।

उन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में निकलनेवाली इसकी समीक्षाओं से मैं उतना ही प्रोत्साहित हुआ था जितना इसकी धीमी बिक्री से प्रकाशकों को निरुत्साहित होना चाहिए था। पर निश्चय ही उनका उत्साह संदेह से परे है। वे इस उपन्यास का अब नया संस्करण निकाल रहे हैं। मैं आभारी हूं।


इस संस्करण में-एक अपवाद छोड़कर-मूल पुस्तक को यथावत् रहने दिया गया है। अपवाद मूल पुस्तक के अंग्रेज़ी अनुच्छेदों के विषय में है। अपने आरम्भिक रचनाकाल में भाषा के, और विशेषतया कथा-साहित्य में पात्रों के वार्तालाप की भाषा के बारे में मैं उतना सचेत न था। इससे अज्ञातवास के कुछ स्थलों में अंग्रेज़ी का बेहिचक प्रयोग हुआ था। इस संस्करण में मैंने अंग्रेज़ी के अधिकांश अनुच्छेदों को हिन्दी में रूपान्तरित कर दिया है। पर कहीं-कहीं अंग्रेज़ी के वाक्य और टुकड़े पूर्ववत् मौजूद हैं। अपने हिन्दी लेखन में अंग्रेजी का स्वच्छन्द प्रयोग करने वाले कई रचनाकारों की तरह किसी समय मैं भी रचना-प्रक्रिया की गहनता से जूझे बिना, दिमाग पर ज़रा-सा दबाव पड़ते ही, किस तरह अंग्रेज़ी की ओर लपकता था, इसका आभास अब भी इस पुस्तक से मिल जाएगा।

समर्पण

इस उपन्यास में रजनीकांत गाँव के होकर भी वहां की आंतरिकता से अपरिचित रहे। कच्ची झोपड़ियां और पक्के बंगले, तुलसी ओर क्रोटन इनके अन्तर की तुच्छता में ही वे उलझे रहे। इनसे ऊपर उठकर जीवन के बृहत्तर परिवेश में वे अपने को नहीं पहचान सके।

ठीक इसके विपरीत श्रीमती गिरिजा शुक्ल के साथ हुआ। उन्होंने पहले कभी गांव न देखा था। शादी होने के बाद ही वे पहली बार एक गांव में आईं। तब बरसात शुरू हो गई थी और ग्राम्यगीतों और सौम्य कविताओं के सम्मिलित षड़्यंत्र के बावजूद रास्तों और मकानों में सीलन, कीचड़, मच्छर, मलेरिया और सांप-बिच्छू का ही आकर्षण था। पर कीचड़ से लथपथ और मलेरिया से जर्जर गाँव की संक्रामक आत्मा ने उन्हें अपनी ओर खींचा और दोनों ने एक-दूसरे को अपना लिया।

जीवन के प्रति एक शांत, सम्यक् दृष्टि का परिचय देते हुए बाहरी वातावरण से ऊपर उठकर उन्होंने वहाँ की मानवीय स्थिति को आत्मसात् करने की कोशिश की। इस प्रकार उन्होंने यथार्थ के सहज और आंतरिक सौंदर्यका वरण किया।

पति होकर भी आज तक मैं उनकी इस प्रवृत्ति को छोटा बनाकर नहीं देख पाया।

विवाहित जीवन के उन प्रारम्भिक दिनों का स्मरण करते हुए अपनी यह कृति उन्हें ही अर्पित करता हूं।

श्रीलाल शुक्ल

चित्र की ओर कुछ देर बराबर देखते रहने के बाद रजनीकान्त ने पूछा, और इसका नाम क्या है ?’’ राजेश्वर सरलता से हंसा; बोला, नाम के ही मामले में मैं कमज़ोर पड़ता हूं। मेरे मन में कुछ बिम्ब उभरते हैं, उन्हीं के सहारे चित्र बनता जाता है। चित्र बन जाता है, पर मैं नाम नहीं खोज पाता। नाम ढूँढ़ने के लिए चित्रकार नहीं, कवि होना पड़ता है।’’

उन्होंने कहा, ‘‘क्या हर्ज है, थोड़ देर के लिए कवि ही सही....’’ राजेश्वर फिर वैसे ही हंसा। कहने लगा, ‘‘मैं कवि नहीं हो सकता, मेरे शब्द कमज़ोर हैं। तभी तो रंगों और रेखाओं का सहारा लिया है।’’

रजनीकान्त के मन में आया, कुछ देर उससे शब्दों की कविता और रेखाओं की कविता की अभिन्नता पर बहस की जाय। पर उन्होंने अपनी इस इच्छा को दबा लिया।


हर साल इंजीनियरिंग कॉलिज से निकले हुए कुछ तेज़ विद्यार्थी उनकी मातहती में इन्जीनियर होकर आते हैं। उस समय माहवारी तनख्वाह पानेवालों की उनमें परम्परागत विनम्रता नहीं होती। हर बात में वे अपनी राय देते हैं, हर बात पर बहस कर सकते हैं। उनको चुप करने के लिए रजनीकान्त ने एक गम्भीर मुस्कराहट का आविष्कार किया है, जिसके सहारे वे बिना कुछ कहे ही बहुत से तर्कों का जवाब दे देते हैं। इस समय उसी मुस्कराह

डाऊनलोड करें- अज्ञातवास

7 comments:

  1. Thank you sir ...publish ke liye

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    1. Wecome sir... n thank for हौसला अफ़ज़ाई

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  2. Jaideepji, kripaya devakinandan khatriji dwara likhit "gupt godna" upload kare...apka bada hi ehsaan hoga hum hindi readers par...dhanyawaad

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  3. बन्धु
    इतनी लंबी गैरहाजिरी। आपने तो दहशत में डाल दिया था । सम्भव हो तो फोन नंबर दे । पुस्तकें उपलब्ध कराने के लिए आभार।

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    1. अजय जी
      आपसे पुनः बात करके अच्छा लगा। गैरहाजिरी के लिए माफी चाहूंगा। आपको पुस्तकें पसंद आयीं इसके लिए धन्यवाद्। अगर आपके पास भी कोई पुस्तक हो जो आप सभी के साथ बाँटना चाहते हैं तो मुझे पुस्तक mail कर देवें। agrawal.jaideep@gmail.com

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  4. bhaiya... kripaya "kashi ka assi" by "kashinath singh" ye upload karein.. plz...thanks

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  5. aur rag darbari mere pass hai.. chahiye toh bataiyega.. main whatsapp ya mail kar dunga..

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