Friday 1 July 2016

हाथ से हाथ मिला

दोस्तों
प्रथम तो आप सभी को धन्यवाद् कि आप सभी आपकी अपनी पसंदीदा साईट हिंदी पुस्तक खज़ाना से जुड़े रहे हैं और मेरा मनोबल बढ़ाते रहे हैं।
साथ ही आप सभी से एक निवेदन है कि आप सभी हिंदी साहित्य प्रेमियों के पास निश्चय ही और भी अनेक पुस्तकें होंगी जिन्हें आप सभी के साथ बाँटना चाहते होंगे। वे सभी पुस्तकें आप मुझे agrawal.jaideep@gmail.com पर mail कर देवें। जिससे वे पुस्तकें भी अन्यों को उपलब्ध कराई जा सके।
आपके स्नेह की प्रतीक्षा में
आपका अपना........

Tuesday 21 June 2016

अज्ञातवास (श्रीलाल शुक्ल)


Agyatwas by Srilal Shukl

परस्तुत उपन्यास हमारे ब्लॉग के एक पाठक श्री हिमांशु जी द्वारा उपलब्ध कराई गई है। उन्हें कोटिशः धन्यवाद्।


श्रीलाल शुक्ल जी की लेखनी द्वारा शहर और गाँवों, दोनों के जीवन का अत्यंत सहज वर्णन

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

गाँव और शहर दोनों की कहानियाँ और एक साथ कहने में श्रीलाल शुक्ल माहिर है। और बहुत कम पृष्ठों में कहानी के भीतर कहानी इस तरह पिरोते चले जाते हैं कि पूरा पढ़े बिना पाठक चैन नहीं लेता। अज्ञातवास एक ऐसी ही अफसर श्रेणी के इंजीनियर की कहानी है जिसकी स्मृतियां एक चित्र को देखकर जाग उठती हैं और जो अपने स्वयं के मित्रों के जिस गांव में उसका डेरा है वहाँ के निवासियों के और अपनी बेटी के भी जीवन की घटनाओं को पर्त-दर-पर्त सामने रखती चली जाती हैं। उसकी पत्नी और उपपत्नी की कथा उपन्यास का चरम बिन्दु है जो बिलकुल अंत में जाकर स्पष्ट होता है। अज्ञातवास निश्चित रूप से एक श्रेष्ठ,पठनीय उपन्यास है।

प्रस्तावना

‘अज्ञातवास’ 1956-60 में लिखा गया था। यदि 1961 में श्री स.ही. वात्स्यायन की मुझे सहज कृपा न मिली होती और राजपाल एण्ड सन्ज़ एक अपेक्षाकृत नये लेखक के लिए कुछ ख़तरा-उठाने के लिए तैयार न हुए होते, तो शायद इसका उस वर्ष भी छपना मुश्किल होता।

उन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में निकलनेवाली इसकी समीक्षाओं से मैं उतना ही प्रोत्साहित हुआ था जितना इसकी धीमी बिक्री से प्रकाशकों को निरुत्साहित होना चाहिए था। पर निश्चय ही उनका उत्साह संदेह से परे है। वे इस उपन्यास का अब नया संस्करण निकाल रहे हैं। मैं आभारी हूं।


इस संस्करण में-एक अपवाद छोड़कर-मूल पुस्तक को यथावत् रहने दिया गया है। अपवाद मूल पुस्तक के अंग्रेज़ी अनुच्छेदों के विषय में है। अपने आरम्भिक रचनाकाल में भाषा के, और विशेषतया कथा-साहित्य में पात्रों के वार्तालाप की भाषा के बारे में मैं उतना सचेत न था। इससे अज्ञातवास के कुछ स्थलों में अंग्रेज़ी का बेहिचक प्रयोग हुआ था। इस संस्करण में मैंने अंग्रेज़ी के अधिकांश अनुच्छेदों को हिन्दी में रूपान्तरित कर दिया है। पर कहीं-कहीं अंग्रेज़ी के वाक्य और टुकड़े पूर्ववत् मौजूद हैं। अपने हिन्दी लेखन में अंग्रेजी का स्वच्छन्द प्रयोग करने वाले कई रचनाकारों की तरह किसी समय मैं भी रचना-प्रक्रिया की गहनता से जूझे बिना, दिमाग पर ज़रा-सा दबाव पड़ते ही, किस तरह अंग्रेज़ी की ओर लपकता था, इसका आभास अब भी इस पुस्तक से मिल जाएगा।

समर्पण

इस उपन्यास में रजनीकांत गाँव के होकर भी वहां की आंतरिकता से अपरिचित रहे। कच्ची झोपड़ियां और पक्के बंगले, तुलसी ओर क्रोटन इनके अन्तर की तुच्छता में ही वे उलझे रहे। इनसे ऊपर उठकर जीवन के बृहत्तर परिवेश में वे अपने को नहीं पहचान सके।

ठीक इसके विपरीत श्रीमती गिरिजा शुक्ल के साथ हुआ। उन्होंने पहले कभी गांव न देखा था। शादी होने के बाद ही वे पहली बार एक गांव में आईं। तब बरसात शुरू हो गई थी और ग्राम्यगीतों और सौम्य कविताओं के सम्मिलित षड़्यंत्र के बावजूद रास्तों और मकानों में सीलन, कीचड़, मच्छर, मलेरिया और सांप-बिच्छू का ही आकर्षण था। पर कीचड़ से लथपथ और मलेरिया से जर्जर गाँव की संक्रामक आत्मा ने उन्हें अपनी ओर खींचा और दोनों ने एक-दूसरे को अपना लिया।

जीवन के प्रति एक शांत, सम्यक् दृष्टि का परिचय देते हुए बाहरी वातावरण से ऊपर उठकर उन्होंने वहाँ की मानवीय स्थिति को आत्मसात् करने की कोशिश की। इस प्रकार उन्होंने यथार्थ के सहज और आंतरिक सौंदर्यका वरण किया।

पति होकर भी आज तक मैं उनकी इस प्रवृत्ति को छोटा बनाकर नहीं देख पाया।

विवाहित जीवन के उन प्रारम्भिक दिनों का स्मरण करते हुए अपनी यह कृति उन्हें ही अर्पित करता हूं।

श्रीलाल शुक्ल

चित्र की ओर कुछ देर बराबर देखते रहने के बाद रजनीकान्त ने पूछा, और इसका नाम क्या है ?’’ राजेश्वर सरलता से हंसा; बोला, नाम के ही मामले में मैं कमज़ोर पड़ता हूं। मेरे मन में कुछ बिम्ब उभरते हैं, उन्हीं के सहारे चित्र बनता जाता है। चित्र बन जाता है, पर मैं नाम नहीं खोज पाता। नाम ढूँढ़ने के लिए चित्रकार नहीं, कवि होना पड़ता है।’’

उन्होंने कहा, ‘‘क्या हर्ज है, थोड़ देर के लिए कवि ही सही....’’ राजेश्वर फिर वैसे ही हंसा। कहने लगा, ‘‘मैं कवि नहीं हो सकता, मेरे शब्द कमज़ोर हैं। तभी तो रंगों और रेखाओं का सहारा लिया है।’’

रजनीकान्त के मन में आया, कुछ देर उससे शब्दों की कविता और रेखाओं की कविता की अभिन्नता पर बहस की जाय। पर उन्होंने अपनी इस इच्छा को दबा लिया।


हर साल इंजीनियरिंग कॉलिज से निकले हुए कुछ तेज़ विद्यार्थी उनकी मातहती में इन्जीनियर होकर आते हैं। उस समय माहवारी तनख्वाह पानेवालों की उनमें परम्परागत विनम्रता नहीं होती। हर बात में वे अपनी राय देते हैं, हर बात पर बहस कर सकते हैं। उनको चुप करने के लिए रजनीकान्त ने एक गम्भीर मुस्कराहट का आविष्कार किया है, जिसके सहारे वे बिना कुछ कहे ही बहुत से तर्कों का जवाब दे देते हैं। इस समय उसी मुस्कराह

डाऊनलोड करें- अज्ञातवास

Sunday 19 June 2016

हैरी पॉटर और आग का प्याला




Harry Potter aur Aag ka Pyala

उपन्यास की इस चौथी कड़ी में हैरी को हॉग्वार्ट्स में ज़बरन तीन-जादूगर प्रतियोगिता में भाग लेना पड़ता है जिसके तीन चरण हैं और जिसमें तीन जादू-विद्यालय भाग लेते हैं। पहले चरण में हैरी ड्रैगन से लड़ता है, दूसरे चरण में झील के पानी के नीचे संघर्ष करता है और तीसरे चरण में उसे भूल-भुलैया में से ट्रॉफ़ी लेनी होती है। उलटे वो और उसका सह-प्रतिद्वन्दी (सॅड्रिक डिगरी) ट्रॉफ़ी छूते ही लॉर्ड वोल्डेमॉर्ट के पास पहुँच जाते हैं, जहाँ वर्मटेल सॅड्रिक का कत्ल कर देता है और हैरी के ख़ून की मदद से वो लॉर्ड वोल्डेमॉर्ट को जिस्मो-जान समेत ज़िन्दा कर देता है। मगर हैरी वोल्डेमॉर्ट की पकड़ से इस बार भी भाग निकलता है। वोल्डेमॉर्ट के वापिस ज़िन्दा हो कर आने की बात को ब्रिटेन का जादूमन्त्री कॉर्नेलियस फ़ज झूठ करार देता है।

डाउनलोड करें- आग का प्याला

Saturday 12 December 2015

निवेदन


साथियो
आप सभी को इंतज़ार कराने का मुझे खेद है।
सोमवार से मैं आपकी सेवा में पुनः प्रस्तुत रहूँगा।
आप सभी से एक निवेदन है
कृपया कोई सज्जन कमेंट के माध्यम से उन पुस्तकों की सूचि उपलब्ध कराने का कष्ट करें जो वास्तव में डाऊनलोड नहीं हो पा रही है। ताकि मैं जल्द से जल्द उन पुस्तकों को पुनः उपलब्ध करा सकूँ। जो पुस्तकें डाऊनलोड हो रही हैं उनका नाम कृपया ना देवें।
धन्यवाद्

Sunday 6 December 2015

वयं रक्षामः (आचार्य चतुरसेन)


Vayam Rakshamah (Acharya Chatursen)

 ‘वैशाली की नगरवधू’ लिखकर मैंने हिन्दी उपन्यासों के संबंध में एक नया मोड़ उपस्थित किया था कि अब हमारे उपन्यास केवल मनोरंजन तथा चरित्र-चित्रण-भर की सामग्री नहीं रह जाएँगे। अब यह मेरा उपन्यास है ‘वयं रक्षाम:’ इस दशा में अगला कदम है।

इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्य-दानव, आर्य-अनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृत-पुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवन-भर के अध्ययन का सार है।...

-आचार्य चतुरसेन

सकलकलोद्वासित-पक्षद्वय-सकलोपधा-विशुद्ध-मखशतपूत-प्रसन्नमूर्ति-स्थिरोन्नत-होमकरोज्ज्वल-

ज्योतिज्र्योतिर्मुख-स्वाधीनोदारसार-स्थगितनृपराजन्य-शतशतपरिलुण्ठन मौलिमाणिक्यरोचिचरण-प्रियवाचा-मायतन-साधुचरितनिकेतन-लोकाश्रयमार्गतरु-भारत-गणपतिभौमब्रह्ममहाराजाभिध-

श्रीराजेन्द्रप्रसादाय ह्यजातशत्रवे अद्य गणतन्त्राख्ये पुण्याहे भौमे माघमासे सिते दले तृतीयायां वैक्रमीये तलाधरेश्वरशून्यनेत्राब्दे निवेदयामि साञ्जलि:स्वीयं साहित्य-कृति वयं ‘रक्षाम:’ इति सामोदमहं चतुरसेन:।

मेरे हृदय और मस्तिष्क में भावों और विचारों की जो आधी शताब्दी की अर्जित प्रज्ञा-पूंजी थी, उन सबको मैंने ‘वयं रक्षाम:’ में झोंक दिया है। अब मेरे पास कुछ नहीं है। लुटा-पिटा-सा, ठगा-सा श्रान्त-कलान्त बैठा हूं। चाहती हूं-अब विश्राम मिले। चिर न सही, अचिर ही। परन्तु यह हवा में उड़ने का युग है। मेरे पिताश्री ने बैलगाड़ी में जीवन-यात्रा की थी, मेरा शैशव इक्का-टांगा-घोड़ों पर लुढ़कता तथा यौवन मोटर पर दौड़ता रहा। अब मोटर और वायुयान को अतिक्रान्त कर आठ सहस्त्र मील प्रति घंटा की चाल वाले राकेट पर पृथ्वी से पांच सौ मील की ऊंचाई पर मेरा वार्धक्य उड़ा चला जा रहा है। विश्राम मिले तो कैसे ? इस युग का तो विश्राम से आचू़ड़ वैर है। बहुत घोड़ो को, गधों को, बैलों को बोझा ढोते-ढोते बीच राह मरते देखा है। इस साहित्यकार के ज्ञानयज्ञ की पूर्णाहुति भी किसी दिन कहीं ऐसे ही हो जाएगी। तभी उसे अपने तप का सम्पूर्ण पुण्य मिलेगा। 

गत ग्यारह महीनों में दो-तीन घण्टों में अधिक नहीं सो पाया। सम्भवत: नेत्र भी इस ग्रन्थ की भेंट हो चुके हैं। शरीर मुर्झा गया है, पर हृदय आनन्द के रस में सराबोर है। यह अभी मेरा पैसठवां ही तो बसन्त है। फिर रावण जगदीश्वर मर गया तो क्या ? उसका यौवन, तेज, दर्प, दुस्साहस, भोग और ऐश्वर्य, जो मैं निरन्तर इन ग्यारह मासों में रात-दिन देखता हूं, उसके प्रभाव से कुछ-कुछ शीतल होते हुए रक्तबिन्दु अभी भी नृत्य कर उठते हैं। गर्म राख की भांति अभी भी उनमें गर्मी है। आग न सही, गर्म राख तो है।

डाउनलोड करें- वयं रक्षामः (पूर्वार्ध)

डाउनलोड करें- वयं रक्षामः (उत्तरार्ध)

विपथगा (अज्ञेय)


Vipathga (Agyey)

अज्ञेय जी का प्रथम कहानी संग्रह 

डाउनलोड करें- विपथगा

Thursday 3 December 2015

यथा संभव (शरद जोशी)

Yatha Sambhav (Sharad Joshi)

प्रख्यात व्यंग्यकार शरद जोशी हास्य व्यंग्य जगत के महत्वपूर्ण स्तम्भ रहे हैं। यथा संभव उनकी अभूतपूर्व कृतियों में से एक है।


व्यंग्य शब्द को साहित्य से जोड़ने अर्थात् व्यंग्य को साहित्य का दर्जा दिलाने में जिन इने-गिने लेखकों की भूमिका रही है उनमें शरद जोशी का नाम सबसे पहले आने वाले लेखकों में से एक है। अपनी चिर-परिचित शालीन भाषा में वे यही कह सकते थे कि-‘मैंने हिन्दी में व्यंग्य साहित्य का अभाव दूर करने की दिशा में ‘यथासम्भव’ प्रयास किया है।’ पर सच तो यह है कि उन्होंने इस दिशा में निश्चित योगदान दिया-गुणवत्ता और परिमाण, दोनों दृष्टियों से। उन्होंने नाचीज विषयों से लेकर गम्भीर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मसलों तक सबकी बाकायदा खबर ली है। रोज़मर्रा के विषयों में उनकी प्रतिक्रिया इतनी सटीक होती कि पाठक का आन्तरिक भावलोक प्रकाशित हो उठता। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि शरद जोशी ने हिन्दी के गम्भीर व्यंग्य को लाखों लोगों तक पहुँचाया।


प्रस्तुत कृति ‘यथासम्भव’ में उनके सम्पूर्ण साहित्य में से सौ बेहतरीन रचनाएँ, स्वयं उनके ही द्वारा चुनी हुई, संकलित हैं। 


उनका यह अपूर्व अनोखा संग्रह व्यंग्य-साहित्य के पाठकों के लिए अपरिहार्य है। दूसरे शब्दों में, ‘यथासम्भव’ का हवाला दिये बिना आधुनिक भारतीय व्यंग्य साहित्य की चर्चा करना ही सम्भव नहीं है।


डाउनलोड करें- यथा संभव