Saturday 12 December 2015

निवेदन


साथियो
आप सभी को इंतज़ार कराने का मुझे खेद है।
सोमवार से मैं आपकी सेवा में पुनः प्रस्तुत रहूँगा।
आप सभी से एक निवेदन है
कृपया कोई सज्जन कमेंट के माध्यम से उन पुस्तकों की सूचि उपलब्ध कराने का कष्ट करें जो वास्तव में डाऊनलोड नहीं हो पा रही है। ताकि मैं जल्द से जल्द उन पुस्तकों को पुनः उपलब्ध करा सकूँ। जो पुस्तकें डाऊनलोड हो रही हैं उनका नाम कृपया ना देवें।
धन्यवाद्

Sunday 6 December 2015

वयं रक्षामः (आचार्य चतुरसेन)


Vayam Rakshamah (Acharya Chatursen)

 ‘वैशाली की नगरवधू’ लिखकर मैंने हिन्दी उपन्यासों के संबंध में एक नया मोड़ उपस्थित किया था कि अब हमारे उपन्यास केवल मनोरंजन तथा चरित्र-चित्रण-भर की सामग्री नहीं रह जाएँगे। अब यह मेरा उपन्यास है ‘वयं रक्षाम:’ इस दशा में अगला कदम है।

इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्य-दानव, आर्य-अनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृत-पुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवन-भर के अध्ययन का सार है।...

-आचार्य चतुरसेन

सकलकलोद्वासित-पक्षद्वय-सकलोपधा-विशुद्ध-मखशतपूत-प्रसन्नमूर्ति-स्थिरोन्नत-होमकरोज्ज्वल-

ज्योतिज्र्योतिर्मुख-स्वाधीनोदारसार-स्थगितनृपराजन्य-शतशतपरिलुण्ठन मौलिमाणिक्यरोचिचरण-प्रियवाचा-मायतन-साधुचरितनिकेतन-लोकाश्रयमार्गतरु-भारत-गणपतिभौमब्रह्ममहाराजाभिध-

श्रीराजेन्द्रप्रसादाय ह्यजातशत्रवे अद्य गणतन्त्राख्ये पुण्याहे भौमे माघमासे सिते दले तृतीयायां वैक्रमीये तलाधरेश्वरशून्यनेत्राब्दे निवेदयामि साञ्जलि:स्वीयं साहित्य-कृति वयं ‘रक्षाम:’ इति सामोदमहं चतुरसेन:।

मेरे हृदय और मस्तिष्क में भावों और विचारों की जो आधी शताब्दी की अर्जित प्रज्ञा-पूंजी थी, उन सबको मैंने ‘वयं रक्षाम:’ में झोंक दिया है। अब मेरे पास कुछ नहीं है। लुटा-पिटा-सा, ठगा-सा श्रान्त-कलान्त बैठा हूं। चाहती हूं-अब विश्राम मिले। चिर न सही, अचिर ही। परन्तु यह हवा में उड़ने का युग है। मेरे पिताश्री ने बैलगाड़ी में जीवन-यात्रा की थी, मेरा शैशव इक्का-टांगा-घोड़ों पर लुढ़कता तथा यौवन मोटर पर दौड़ता रहा। अब मोटर और वायुयान को अतिक्रान्त कर आठ सहस्त्र मील प्रति घंटा की चाल वाले राकेट पर पृथ्वी से पांच सौ मील की ऊंचाई पर मेरा वार्धक्य उड़ा चला जा रहा है। विश्राम मिले तो कैसे ? इस युग का तो विश्राम से आचू़ड़ वैर है। बहुत घोड़ो को, गधों को, बैलों को बोझा ढोते-ढोते बीच राह मरते देखा है। इस साहित्यकार के ज्ञानयज्ञ की पूर्णाहुति भी किसी दिन कहीं ऐसे ही हो जाएगी। तभी उसे अपने तप का सम्पूर्ण पुण्य मिलेगा। 

गत ग्यारह महीनों में दो-तीन घण्टों में अधिक नहीं सो पाया। सम्भवत: नेत्र भी इस ग्रन्थ की भेंट हो चुके हैं। शरीर मुर्झा गया है, पर हृदय आनन्द के रस में सराबोर है। यह अभी मेरा पैसठवां ही तो बसन्त है। फिर रावण जगदीश्वर मर गया तो क्या ? उसका यौवन, तेज, दर्प, दुस्साहस, भोग और ऐश्वर्य, जो मैं निरन्तर इन ग्यारह मासों में रात-दिन देखता हूं, उसके प्रभाव से कुछ-कुछ शीतल होते हुए रक्तबिन्दु अभी भी नृत्य कर उठते हैं। गर्म राख की भांति अभी भी उनमें गर्मी है। आग न सही, गर्म राख तो है।

डाउनलोड करें- वयं रक्षामः (पूर्वार्ध)

डाउनलोड करें- वयं रक्षामः (उत्तरार्ध)

विपथगा (अज्ञेय)


Vipathga (Agyey)

अज्ञेय जी का प्रथम कहानी संग्रह 

डाउनलोड करें- विपथगा

Thursday 3 December 2015

यथा संभव (शरद जोशी)

Yatha Sambhav (Sharad Joshi)

प्रख्यात व्यंग्यकार शरद जोशी हास्य व्यंग्य जगत के महत्वपूर्ण स्तम्भ रहे हैं। यथा संभव उनकी अभूतपूर्व कृतियों में से एक है।


व्यंग्य शब्द को साहित्य से जोड़ने अर्थात् व्यंग्य को साहित्य का दर्जा दिलाने में जिन इने-गिने लेखकों की भूमिका रही है उनमें शरद जोशी का नाम सबसे पहले आने वाले लेखकों में से एक है। अपनी चिर-परिचित शालीन भाषा में वे यही कह सकते थे कि-‘मैंने हिन्दी में व्यंग्य साहित्य का अभाव दूर करने की दिशा में ‘यथासम्भव’ प्रयास किया है।’ पर सच तो यह है कि उन्होंने इस दिशा में निश्चित योगदान दिया-गुणवत्ता और परिमाण, दोनों दृष्टियों से। उन्होंने नाचीज विषयों से लेकर गम्भीर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मसलों तक सबकी बाकायदा खबर ली है। रोज़मर्रा के विषयों में उनकी प्रतिक्रिया इतनी सटीक होती कि पाठक का आन्तरिक भावलोक प्रकाशित हो उठता। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि शरद जोशी ने हिन्दी के गम्भीर व्यंग्य को लाखों लोगों तक पहुँचाया।


प्रस्तुत कृति ‘यथासम्भव’ में उनके सम्पूर्ण साहित्य में से सौ बेहतरीन रचनाएँ, स्वयं उनके ही द्वारा चुनी हुई, संकलित हैं। 


उनका यह अपूर्व अनोखा संग्रह व्यंग्य-साहित्य के पाठकों के लिए अपरिहार्य है। दूसरे शब्दों में, ‘यथासम्भव’ का हवाला दिये बिना आधुनिक भारतीय व्यंग्य साहित्य की चर्चा करना ही सम्भव नहीं है।


डाउनलोड करें- यथा संभव

Tuesday 1 December 2015

Sunday 29 November 2015

निर्बंध (महासमर भाग 8)- नरेंद्र कोहली

Nirbandh (Mahasamar 8) by Narendra Kohli

महासमर सीरीज़ का आखिरी उपन्यास

पाठक पूछता है कि यदि उसे महाभारत की कथा पढ़नी है तो वह व्यासकृत मूल महाभारत ही क्यों न पढ़े, नरेन्द्र कोहली का उपन्यास क्यों पढ़े ? वह यह भी पूछता है कि उसे उपन्यास ही पढ़ना है, तो वह समसामयिक सामाजिक उपन्यास क्यों न पढ़े, नरेन्द्र कोहली का ‘महासागर’ ही क्यों पढे़ ? 

‘महासागर’ हमारा काव्य भी है, इतिहास भी और अध्यात्म भी। हमारे प्राचीन ग्रंथ शाश्वत सत्य की चर्चा करते हैं। वे किसी कालखंड के सीमित सत्य में आबद्ध नहीं हैं, जैसा कि यूरोपीय अथवा यूरोपीयकृत मस्तिष्क अपने अज्ञान अथवा बाहरी प्रभाव में मान बैठा है। नरेंन्द्र कोहली ने न महाभारत को नए संदर्भो में लिखा है, न उसमें संशोधन करने का कोई दावा है। न वे पाठको को महाभारत समझाने के लिए, उसकी व्याख्या कर रहे हैं। नरेन्द्र कोहली यह नहीं मानते कि महाकाल की यात्रा, खंडों में विभाजित है, इसलिए जो घटनाए घटित हो चुकी हैं, उनमें अब हमारा कोई संबन्ध नहीं है, उनकी मान्यता है कि न तो प्रकृति के नियम बदले हैं, न मनुष्य का मनोविज्ञान। मनुष्य की अखंड कालयात्रा को इतिहास खंड़ों में बाँटे तो बाँटे, साहित्य उन्हें विभाजित नहीं करता, यद्यपि ऊपरी आवरण सदा ही बदलते रहते हैं। 

महाभारत की कथा भारतीय चिंतन और भारतीय संस्कृति की अमूल्य थाती है। नरेन्द्र कोहली ने उसे ही अपने उपन्यास का आधार बनाया है, जो उसे अपने बाहरी कथा मनुष्य के उस अनवरत युद्ध की कथा है, जो उसे अपने बाहरी भीतरी शत्रुओं के साथ निरंतर करना पड़ता है। वह उस संसार में रहता है, जिसमें चारों ओर लोभ, मोह, सत्ता और स्वार्थ संघर्षरत हैं। बाहर से अधिक, उसे अपनों से लड़ना पड़ता है। और यदि वह अपने धर्म पर टिका रहता है, तो वह इसी देह में स्वर्ग भी जा सकता है- इसका आश्वासन ‘महाभरत’ देता है। लोभ, त्रास और स्वार्थ के विरुद्ध मनुष्य के इस सात्विक उपन्यास के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।..और वह है ‘महासागर’। आठ खंडो में प्रकाशित होने वाले इस उपन्यास का यह आठवा और अंतिम खंड है। इस खंड के साथ यह उपन्यास श्रंखला पूर्ण हुई, जिसके लेखन में लेखक को पंद्रह वर्ष लगे हैं। कदाचित् यह हिंदी की सबसे बृहदाकार उपन्यास है, जो रोचकता, पठनीयता और इस देश की परंपरा के गंभीर चिंतन को एक साथ समेटे हुए है। 

आप इसे पढ़े और स्वयं अपने आप से पूछें, आपने इतिहास पढ़ा ? पुराण पढ़ा ? धर्मग्रंथ पढ़ा अथवा एक रोचक उपन्यास पढ़ा ? इसे पढ़कर आपका मनोरंजन हुआ है ? आपका ज्ञान बढ़ा ? आपका अनुभूति-संसार समृद्ध हुआ ? अथवा आपका विकास हुआ ? क्या आपने इससे पहले कभी ऐसा कुछ पढ़ा था ?


डाउनलोड करें- निर्बंध

हैरी पॉटर और अज़्काबान का कैदी

Harry Potter aur Azkaban ka Kaidi

हैरी पॉटर सीरीज़ की तीसरी पुस्तक
हैरी पॉटर अपने दोस्तों रॉन और हर्माइनी के साथ हॉगवर्ट्स जादू और तंत्र के विद्यालय में थर्ड ईयर की पढ़ाई शुरू करने वाला है। गर्मी की छुट्टियों के बाद हैरी स्कूल जाने के लिए बेताब है। इसमें कोई अजीब बात नहीं है, क्योंकि उसे डर्स्ली परिवार में रहना बहुत भयानक लगता है। लेकिन जब हैरी हॉगवर्ट्स पहुँचता है, तो उसे वहाँ भी तनावपूर्ण माहौल ही मिलता है। हर तरफ दहशत फैली है...तेरह लोगों की सामूहिक हत्या करने वाला खूनी अज़्काबान जेल से भाग, निकला है और उसके इरादे खूँखार हैं। अब उस खूनी का अगला निशाना हॉगवर्ट्स ही है, जहाँ हैरी पढ़ता है। यही वजह है कि हॉगवर्ट्स स्कूल की रखवाली के लिए दमपिशाचों यानी अज्काबान के खतरनाक पहरेदारों को बुलाया गया है....क्या उसका निशाना हैरी पॉटर है?...क्या वह खूनी अपने इरादों में कामयाब हो पाएगा

हैरी और उसके दोस्तों की मंत्रमुग्ध करने वाली नई कहानी, जिसे जे. के. रोलिंग ने अपने चिर-परिचित मनमोहक अंदाज़ में लिखा है।

डाउनलोड करें- अज़्काबान का कैदी

Tuesday 17 November 2015

प्रत्यक्ष (महासमर भाग 7)- नरेंद्र कोहली


Pratyaksh (Mahasamar 7) by Narendra Kohli 

नरेन्द्र कोहली के महाभारत की कथा पर आश्रित उपन्यास ‘महासमर’ का यह सातवाँ खंड है, जिसमें युद्ध के उद्योग और फिर युद्ध के प्रथम चरण अर्थात भीष्म पर्व की कथा है। कथा तो यही है कि पांडवों ने अपने सारे मित्रों से सहायता माँगी। कृष्ण से भी। पर नरेन्द्र कोहली का प्रश्न है कि जो कृष्ण जो आज तक युधिष्ठिर से कह रहे थे कि वे कुछ न करें बस अनुमति दे दें तो यादव ही दुर्योंधन का वध कर पांडवों का राज्य उन्हें प्राप्त करवा देंगे, वे कृष्ण उद्योग की भूमि उपलव्य से उठकर द्वारका क्यों चले गए ? पांडवों को उनसे सहायता माँगने के लिए द्वारका क्यों जाना पड़ा ? कृष्ण ने पापी दुर्योधन को अपने परम मित्र अर्जुन के समकक्ष कैसे मान लिया ? प्रश्न यह भी है कि जो कृतवर्मा, कृष्ण का समधी था, जिसने कौरवों की राज सभा से कृष्ण को सुरक्षित बाहर निकाल लाने के लिए अपनी जान लड़ा दी, वह दुर्योधन के पक्ष से युद्ध करने क्यों चला गया ? ऐसा क्या हो गया कि यादवों के सर्वप्रिय नेता कृष्ण जब पांडवों की ओर से युद्ध में सम्मलित होने आए तो उनके साथ न उनके भाई थे, न पुत्र ? कोई नहीं था कृष्ण के साथ। यादवों में इतने अकेले कैसे हो गए कृष्ण ?

जिस युधिष्ठिर के राज्य के लिए यह युद्ध होना था, वह युधिष्ठिर ही युद्ध के पक्ष में नहीं था। जिस अर्जुन के बल पर पांडवों को यह युद्ध लड़ना था, वह अर्जुन अपना गांडीव त्याग हताश होकर बैठ गया था। उसे युद्ध नहीं करना था। जिन यादवों का सबसे बड़ा सहारा था, उन यादवों में से कोई नहीं आया लड़ने, तो महाभारत का युद्ध कौन लड़ रहा था ? कृष्ण ? अकेले कृष्ण ? जिन के हाथ में अपना कोई शस्त्र भी नहीं था ? 

अर्जुन शिखंडी को समाने रख भीष्म का वध करता है अथवा पहले चरण में वह भीष्म को शिखंडी से बचाता रहा है और फिर अपने जीवन और युग से हताश भीष्म को एक क्षत्रीय की गौरवपूर्ण मृत्यु देने के लिए उनसे सहयोग करता है ? कर्ण का रोष क्या था और क्या था कर्ण का धर्म ? कर्ण का चरित्र ? इस खंड में कुंती और कर्ण का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हुआ हा। और कुंती ने प्रत्यक्ष किया है कर्ण की महानता को। बताया है उसे कि वह क्या कर रहा है, क्या करता रहा है। बहुत कुछ प्रत्यक्ष हुआ है, महासमर के इस सातवें खंड प्रत्यक्ष में।....किंतु सब से अधिक प्रत्यक्ष हुए हैं नायकों के नायक श्रीकृष्ण। लगता है कि एक बार कृष्ण प्रकट हो जाएँ तो अन्य प्रत्येक पात्र उनके सम्मुख वामन हो जाता है। और इसी खंड में है कृष्ण की गीता...भगवद्गीता..। एक उपन्यास में गीता, जो गीता भी है और उपन्यास भी। इस खंड को पढ़ने के पश्चात निश्चित रूप से आप अनुभव करेंगे कि आप कृष्ण को बहुत जानते थे, पर फिर भी इतना तो नहीं ही जानते थे।..

डाउनलोड करें- प्रत्यक्ष

Thursday 12 November 2015

बलवा (योद्धा)


Balwa (Yoddha #3) by Raj Comics 

डाउनलोड करें- बलवा

आक्रमण (योद्धा)


Akraman (Yoddha #2) by Raj Comics 

डाउनलोड करें- आक्रमण

कनुप्रिया (धर्मवीर भारती)


Kanupriya by Dharmveer Bharti

ऐसे तो क्षण होते ही हैं जब लगता है कि इतिहास की दुर्दान्त शक्तियाँ अपनी निर्मम गति से बढ़ रही हैं, जिन में कभी हम अपने को विवश पाते हैं, कभी विक्षुब्ध, कभी विद्रोही और प्रतिशोधयुक्त, कभी वल्गाएँ हाथ में लेकर गतिनायक या व्याख्याकार, तो कभी चुपचाप शाप या सलीब स्वीकार करते हुए आत्मबलिदानी उद्धारक या त्राता.....लेकिन ऐसे भी क्षण होते हैं जब हमें लगता है कि यह सब जो बाहर का उद्वेग है-महत्त्व उसका नहीं है-महत्त्व उसका है जो हमारे अन्दर साक्षात्कृत होता है-चरम तन्मयता का क्षण जो एक स्तर पर सारे बाह्म इतिहास की प्रक्रिया से ज्यादा मूल्यवान् सिद्ध होता है, जो क्षण हमें सीपी की तरह खोल गया है-इस तरह कि समस्त बाह्म-अतीत, वर्तमान और भविष्य-सिमट कर उस क्षण में पूँजीभूत हो गया है, और हम हम नहीं रहे !

प्रयास तो कई बार यह हुआ कि कोई ऐसा मूल्यस्तर खोजा जा सके जिस पर ये दोनों ही स्थितियाँ अपनी सार्थकता पा सकें-पर इस खोज को कठिन पा कर दूसरे आसान समाधान खोज लिये गये हैं-मसलन इन दोनों के बीच एक अमिट पार्थक्य रेखा खींच देना-और फिर इस बिन्दु से खड़े होकर उस बिन्दु को, और उस बिन्दु से खड़े होकर इस बिन्दु को मिथ्या भ्रम घोषित करना।......या दूसरी पद्धति यह रही है कि पहले वह स्थिति जी लेना, उस की तन्मयता को सर्वोपरि मानना- और बाद में दूसरी स्थिति का सामना करना, उस के समाधान की खोज में पहली को बिलकुल भूल जाना। इस तरह पहली को भूलकर दूसरी और दूसरी से अब फिर पहली की ओर निरन्तर घटते-बढ़ते रहना-धीरे-धीरे इस असंगति के प्रति न केवल अभ्यस्त हो जाना-वरन् इसी असंगति को महानता का आधार मान लेना। (यह घोषित करना कि अमुक मनुष्य या प्रभु का व्यक्तित्व ही इसीलिए असाधारण है कि वह दोनों विरोधी स्थितियाँ बिना किसी सामंजस्य के जी सकने में समर्थ हैं।)

लेकिन वह क्या करे जिसने अपने सहज मन से जीवन जिया है, तन्मयता के क्षणों में डूब कर सार्थकता पायी है, और जो अब उद्धघोषित महानताओं से अभिभूत और आतंकित नहीं होता बल्कि आग्रह करता है कि वह उसी सहज की कसौटी पर समस्त को कसेगा।
ऐसा ही आग्रह है कनुप्रिया का !

लेकिन उस का यह प्रश्न और आग्रह उस की प्रारम्भिक कैशोर्य-सुलभ मनःस्थितियों से ही उपज कर धीरे-धीरे विकसित होता गया है। इस कृति का काव्यबोध भी उन विकास स्थितियों को उन की ताजगी में ज्यों का त्यों रखने का प्रयास करता चलता है। पूर्वराग और मंजरी-परिणय उस विकास का प्रथम चरण, सृष्टि-संकल्प, द्वितीय चरण तथा महाभारत काल से जीवन के अन्त तक शासक, कूटनीतिज्ञ व्याख्याकार कृष्ण के इतिहास-निर्माण को कनुप्रिया की दृष्टि से देखने वाले खण्ड-इतिहास तथा समापन इस विकास का तृतीय चरण चित्रित करते हैं।

लेखक के पिछले दृश्यकाव्य में एक बिन्दु से इस समस्या पर दृष्टिपात किया जा चुका है-गान्धारी, युयुत्सु और अश्वत्थामा के माध्यम से। कनुप्रिया उनसे सर्वथा पृथक-बिलकुल दूसरे बिन्दु से चल कर उसी समस्या तक पहुँचती है, उसी प्रक्रिया को दूसरे भावस्तर से देखती है और अपने अनजान में ही प्रश्न के ऐसे सन्दर्भ उद्घाटित करती है जो पूरक सिद्ध होते हैं। पर यह सब उस के अनजान में में होता है क्योंकि उस की मूलवृत्ति संशय या जिज्ञासा नहीं, भावाकुल तन्मयता है।
कनुप्रिया की सारी प्रतिक्रियाएँ उसी तन्मयता की विभिन्न स्थितियाँ हैं।


पहला गीत


ओ पथ के किनारे खड़े छायादार पावन अशोक-वृक्ष
तुम यह क्यों कहते हो कि तुम मेरे चरणों के स्पर्श की प्रतीक्षा में
जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे तुम को क्या मालूम कि
मैं कितनी बार केवल तुम्हारे लिए-धूल में मिली हूँ
धरती में गहरे उतर जड़ों के सहारे
तु्म्हारे कठोर तने के रेशों में कलियाँ बन, कोंपल बन,सौरभ बन,लाली बन-
चुपके से सो गयी हूँ
कि कब मधुमास आये और तुम कब मेरे 
प्रस्फुटन से छा जाओ !

फिर भी तुम्हें याद नहीं आया, नहीं आया,
तब तुम को मेरे इन जावक-रचित पाँवों ने
केवल यह स्मरण करा दिया कि मैं तुम्हीं में हूँ
तुम्हारे ही रेशे-रेशे में सोयी हुई-
और अब समय आ गया कि
मैं तुम्हारी नस-नस में पंख पसार कर उडूँगी
और तुम्हारी डाल-डाल में गुच्छे-गुच्छे लाल-लाल
कलियाँ बन खिलूँगी !
ओ पथ के किनारे खड़े
छायादार पावन अशोक-वृक्ष
तुम यह क्यों कहते हो कि
तुम मेरी ही प्रतीक्षा में
कितने ही जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे !


डाउनलोड करें- कनुप्रिया

बंद गली का आखिरी मकान - धर्मवीर भारती


Band Gali ka Akhiri Makan by Dharmveer Bharti 

यह भी बहुत दिलचस्प ढंग है। वर्षों तक साहित्य में कहानी, नयी कहानी, साठोत्तरी कहानी, अकहानी आदि-आदि को लेकर बहस चलती रहे। लिखनेवाला चुप रहे। वर्षों तक चुप रहे और फिर चुपके से एक कहानी लिखकर प्रकाशित करा दे, और वही उसका घोषणा-पत्र हो, गोया उसने सारे वाद-विवाद के बीच एक रचनात्मक कीर्तिमान स्थापित कर दिया हो, कि देखो यह है कहानी..बन्द गली का आखिरी मकान, प्रकाशित होने पर जो तमाम पत्र लेखक को मिले उनमें से एक पत्र का यह अंश भारती की कथा-यात्रा की दिलचस्प झलक पेश करता है। भारती ने वर्षों के अन्तराल पर इस संकलन की कहानियाँ लिखी लेकिन हर कहानी अपनी जगह पर मुकम्मिल एक? क्लासिक? बनती गयी। ये कहानियाँ आप केवल पढ़कर पूरी नहीं करते,यो कहानियाँ कहीं बहुत गहरे पैठकर आपकी जीवन-दृष्टि को पूरी और गहरी बना जाती है। इनमें कुछ ऐसा है जो आप पढ़कर ही जान पाएँगे। प्रस्तुत है इस कृति का नवीन संस्करण।

गुलकी बन्नो

‘‘ऐ मर कलमुँहे !’ अकस्मात् घेघा बुआ ने कूड़ा फेंकने के लिए दरवाजा खोला और चौतरे पर बैठे मिरवा को गाते हुए देखकर कहा, ‘‘तोरे पेट में फोनोगिराफ उलियान बा का, जौन भिनसार भवा कि तान तोड़ै लाग ? राम जानै, रात के कैसन एकरा दीदा लागत है !’’ मारे डर के कि कहीं घेघा बुआ सारा कूड़ा उसी के सर पर न फेक दें, मिरवा थोड़ा खिसक गया और ज्यों ही घेघा बुआ अन्दर गयीं कि फिर चौतरे की सीढ़ी पर बैठ, पैर झुलाते हुए उसने उल्टा-सुल्टा गाना शुरू कर किया, ‘‘तुमें बछ याद कलते अम छनम तेरी कछम !’’ मिरवा की आवाज़ सुनकर जाने कहाँ से झबरी कुतिया भी कान-पूँछ झटकारते आ गयी और नीचे सड़क पर बैठकर मिरवा का गाना बिलकुल उसी अन्दाज़ में सुनने लगी जैसे हिज़ मास्टर्स वॉयस के रिकार्ड पर तसवीर बनी होती है।


अभी सारी गली में सन्नाटा था। सबसे पहले मिरवा (असली नाम मिहिरलाल) जागता था और आँख मलते-मलते घेघा बुआ के चौतरे पर आ बैठता था। उसके बाद झबरी कुतिया, फिर मिरवा की छोटी बहन मटकी और उसके बाद एक-एक कर गली के तमाम बच्चे-खोंचेवाली का लड़का मेवा, ड्राइवर साहब की लड़की निरमल, मनीजर साहब के मुन्ना बाबू-सभी आ जुटते थे। जबसे गुलकी ने घेघा बुआ के चौतरे पर तरकारियों की दुकान रखी थी तब से यह जमावड़ा वहाँ होने लगा था। उसके पहले बच्चे हकीमजी के चौतरे पर खेलते थे। धूप निकलते गुलकी सट्टी से तरकारियाँ ख़रीदकर अपनी कुबड़ी पीठ पर लादे, डण्डा टेकती आती और अपनी दुकान फैला देती। मूली, नीबू, कद्दू, लौकी, घिया-बण्डा, कभी-कभी सस्ते फल ! मिरवा और मटकी जानकी उस्ताद के बच्चे थे जो एक भंयकर रोग में गल-गलकर मरे थे और दोनों बच्चे भी विकलांग, विक्षिप्त और रोगग्रस्त पैदा हुए थे। सिवा झबरी कुतिया के और कोई उनके पास नहीं बैठता था और सिवा गुलकी के कोई उन्हें अपनी देहरी या दुकान पर चढ़ने नहीं देता था।


आज भी गुलकी को आते देखकर पहले मिरवा गाना छोड़कर, ‘‘छलाम गुलकी !’’ और मटकी अपने बढ़ी हुई तिल्लीवाले पेट पर से खिसकता हुआ जाँघिया सँभालते हुए बोली, ‘‘एक ठो मूली दै देव ! ए गुलकी !’’ गुलकी पता नहीं किस बात से खीजी हुई थी कि उसने मटकी को झिड़क दिया और अपनी दुकान लगाने लगी। झबरी भी पास गयी कि गुलकी ने डण्ड उठाया। दुकान लगाकर वह अपनी कुबड़ी पीठ दुहराकर बैठ गयी और जाने किसे बुड़बुड़ाकर गालियाँ देने लगी। मटकी एक क्षण चुपचाप रही फिर उसने रट लगाना शुरू किया, ‘‘एक मूली ! एक गुलकी !...एक’’ गुलकी ने फिर झिड़का तो चुप हो गयी और अलग हटकर लोलुप नेत्रों से सफेद धुली हुई मूलियों को देखने लगी। इस बार वह बोली नहीं। चुपचाप उन मूलियों की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि गुलकी चीख़ी, ‘‘हाथ हटाओ। छूना मत। कोढ़िन कहीं की ! कहीं खाने-पीने की चीज देखी तो जोंक की तरह चिपक गयी, चल इधर !’’ मटकी पहले तो पीछे हटी पर फिर उसकी तृष्णा ऐसी अदम्य हो गयी कि उसने हाथ बढ़ाकर एक मूली खींच ली। गुलकी का मुँह तमतमा उठा और उसने बाँस की खपच्ची उठाकर उसके हाथ पर चट से दे मारी ! मूली नीचे गिरी और हाय ! हाय ! हाय !’’ कर दोनों हाथ झटकती हुई मटकी पाँव पटकपटक कर रोने लगी। ‘‘जावो अपने घर रोवो। हमारी दुकान पर मरने को गली-भर के बच्चे हैं-’’ गुलकी चीख़ी ! ‘‘दुकान दैके हम बिपता मोल लै लिया। छन-भर पूजा-भजन में भी कचरघाँव मची रहती है !’’ अन्दर से घेघा बुआ ने स्वर मिलाया। ख़ासा हंगामा मच गया कि इतने में झबरी भी खड़ी हो गयी और लगी उदात्त स्वर में भूँकने। ‘लेफ्ट राइट ! लेफ्ट राइट !’ चौराहे पर तीन-चार बच्चों का जूलूस चला आ रहा था। आगे-आगे दर्जा ‘ब’ में पढ़नेवाले मुन्ना बाबू नीम की सण्टी को झण्डे की तरह थामे जलूस का नेतृत्व कर रहे थे, पीछे थे मेवा और निरमल। जलूस आकर दूकान के सामने रूक गया। गुलकी सतर्क हो गयी। दुश्मन की ताक़त बढ़ गयी थी।

मटकी खिसकते-खिसकते बोली, ‘‘हमके गुलकी मारिस है। हाय ! हाय ! हमके नरिया में ढकेल दिहिस। अरे बाप रे !’’ निरमल, मेवा, मुन्ना, सब पास आकर उसकी चोट देखने लगे। फिर मुन्ना ने ढकेलकर सबको पीछे हटा दिया और सण्टी लेकर तनकर खड़े हो गये। ‘‘किसने मारा है इसे !’’

‘‘हम मारा है !’’ कुबड़ी गुलकी ने बड़े कष्ट से खड़े होकर कहा, ‘‘का करोगे ? हमें मारोगे !’’ मारोगे !’’ मारेंगे क्यों नहीं ?’’ मुन्ना बाबू ने अकड़कर कहा। गुलकी इसका कुछ जवाब देती कि बच्चे पास घिर आये। मटकी ने जीभ निकालकर मुँह बिराया, मेवा ने पीछे जाकर कहा, ‘‘ए कुबड़ी, ए कुबड़ी, अपना कूबड़ दिखाओ !’’ और एक मुट्ठी धूल उसकी पीठ पर छोड़कर भागा। गुलकी का मुँह तमतमा आया और रूँधे गले से कराहते हुए उसने पता नहीं क्या कहा। किन्तु उसके चेहरे पर भय की छाया बहुत गहरी हो रही थी। बच्चे सब एक-एक मुट्ठी धूल लेकर शोर मचाते हुए दौड़े कि अकस्मात् घेघा बुआ का स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘ए मुन्ना बाबू, जात हौ कि अबहिन बहिनजी का बुलवाय के दुई-चार कनेठी दिलवायी !’’ ‘‘जाते तो हैं !’’ मुन्ना ने अकड़ते हुए कहा, ‘‘ए मिरवा, बिगुल बजाओ।’’ मिरवा ने दोनों हाथ मुँह पर रखकर कहा, ‘‘धुतु-धुतु-धू।’’ जलूस आगे चल पड़ा और कप्तान ने नारा लगाया:

अपने देस में अपना राज ! 

गुलकी की दुकान बाईकाट !


नारा लगाते हुए जलूस गली में मुड़ गया। कुबड़ी ने आँसू पोंछे, तरकारी पर से धूल झाड़ी और साग पर पानी के छींटे देने लगी।

गुलकी की उम्र ज़्यादा नहीं थी। यही हद-से-हद पच्चीस-छब्बीस। पर चेहरे पर झुर्रियाँ आने लगी थीं और कमर के पास से वह इस तरह दोहरी हो गयी थी जैसे अस्सी वर्ष की बुढ़िया हो। बच्चों ने जब पहली बार उसे मुहल्ले में देखा तो उन्हें ताजुज्ब भी हुआ और थोड़ा भय भी। कहाँ से आयी ? कैसे आ गयी ? पहले कहाँ थी ? इसका उन्हें कुछ अनुमान नहीं था ? निरमल ने ज़रूर अपनी माँ को उसके पिता ड्राइवर से रात को कहते हुए सुना, ‘‘यह मुसीबत और खड़ी हो गयी। मरद ने निकाल दिया तो हम थोड़े ही यह ढोल गले बाँधेंगे। बाप अलग हम लोगों का रुपया खा गया। सुना चल बसा तो डरी कि कहीं मकान हम लोग न दखल कर लें और मरद को छोड़कर चली आयी। खबरदार जो चाभी दी तुमने !’’

‘‘क्या छोटेपन की बात करती हो ! रूपया उसके बाप ने ले लिया तो क्या हम उसका मकान मार लेंगे ? चाभी हमने दे दी है। दस-पाँच दिन का नाज-पानी भेज दो उसके यहाँ।’’

‘‘हाँ-हाँ, सारा घर उठा के भेज देव। सुन रही हो घेघा बुआ !’’


‘‘तो का भवा बहू, अरे निरमल के बाबू से तो एकरे बाप की दाँत काटी रही।’’ घेघा बुआ की आवाज़ आयी-‘‘बेचारी बाप की अकेली सन्तान रही। एही के बियाह में मटियामेट हुई गवा। पर ऐसे कसाई के हाथ में दिहिस की पाँचै बरस में कूबड़ निकल आवा।’’

‘‘साला यहाँ आवे तो हण्टर से ख़बर लूँ मैं।’’ ड्राइवर साहब बोले, ‘‘पाँच बरस बाद बाल-बच्चा हुआ। अब मरा हुआ बच्चा पैदा हुआ तो उसमें इसका क्या कसूर ! साले ने सीढ़ी से ढकेल दिया। जिन्दगी-भर के लिए हड्डी खराब हो गयी न ! अब कैसे गुजारा हो उसका ?’’

‘‘बेटवा एको दुकान खुलवाय देव। हमरा चौतरा खाली पड़ा है। यही रूपया दुइ रूपया किराया दै देवा करै, दिन-भर अपना सौदा लगाय ले। हम का मना करित है ? एत्ता बड़ा चौतरा मुहल्लेवालन के काम न आयी तो का हम छाती पर धै लै जाब ! पर हाँ, मुला रुपया दै देव करै।’’


दूसरे दिन यह सनसनीख़ेज ख़बर बच्चों में फैल गयी। वैसे तो हकीमजी का चबूतरा पड़ा था, पर वह कच्चा था, उस पर छाजन नहीं थी। बुआ का चौतरा लम्बा था, उस पर पत्थर जुड़े थे। लकड़ी के खम्भे थे। उस पर टीन छायी थी। कई खेलों की सुविधा थी। खम्भों के पीछे किल-किल काँटे की लकीरें खींची जा सकती थीं। एक टाँग से उचक-उचककर बच्चे चिबिड्डी खेल सकते थे। पत्थर पर लकड़ी का पीढ़ा रखकर नीचे से मुड़ा हुआ तार घुमाकर रेलगाड़ी चला सकते थे। जब गुलकी ने अपनी दुकान के लिए चबूतरों के खम्भों में बाँस-बाँधे तो बच्चों को लगा कि उनके साम्राज्य में किसी अज्ञात शत्रु ने आकर क़िलेबन्दी कर ली है। वे सहमे हुए दूर से कुबड़ी गुलकी को देखा करते थे। निरमल ही उसकी एकमात्र संवाददाता थी और निरमल का एकमात्र विश्वस्त सूत्र था उसकी माँ। उससे जो सुना था उसके आधार पर निरमल ने सबको बताया था कि यह चोर है। इसका बाप सौ रूपया चुराकर भाग गया। यह भी उसके घर का सारा रूपया चुराने आयी है। ‘‘रूपया चुरायेगी तो यह भी मर जाएगी।’’ मुन्ना ने कहा, ‘‘भगवान सबको दण्ड देता है।’’ निरमल बोली ‘‘ससुराल में भी रूपया चुराये होगी।’’ मेवा बोला ‘‘अरे कूबड़ थोड़े है ! ओही रूपया बाँधे है पीठ पर। मनसेधू का रूपया है।’’ ‘‘सचमुच ?’’ निरमल ने अविश्वास से कहा। ‘‘और नहीं क्या कूबड़ थोड़ी है। है तो दिखावै।’’ मुन्ना द्वारा उत्साहित होकर मेवा पूछने ही जा रहा था कि देखा साबुनवाली सत्ती खड़ी बात कर रही है गुलकी से-कह रही थी, ‘‘अच्छा किया तुमने ! मेहनत से दुकान करो। अब कभी थूकने भी न जाना उसके यहाँ। हरामजादा, दूसरी औरत कर ले, चाहे दस और कर ले। सबका खून उसी के मत्थे चढ़ेगा। यहाँ कभी आवे तो कहलाना मुझसे। इसी चाकू से दोनों आँखें निकाल लूँगी !’’

बच्चे डरकर पीछे हट गये। चलते-चलते सत्ती बोली, ‘‘कभी रूपये-पैसे की जरूरत हो तो बताना बहिना !’’


कुछ दिन बच्चे डरे रहे। पर अकस्मात् उन्हें यह सूझा कि सत्ती को यह कुबड़ी डराने के लिए बुलाती है। इसने उसके गु़स्से में आग में घी का काम किया। पर कर क्या सकते थे। अन्त में उन्होंने एक तरीक़ा ईजाद किया। वे एक बुढ़िया का खेल खेलते थे। उसको उन्होंने संशोधित किया। मटकी को लैमन जूस देने का लालच देकर कुबड़ी बनाया गया। वह उसी तरह पीठ दोहरी करके चलने लगी। बच्चों ने सवाल जवाब शुरू कियेः

‘‘कुबड़ी-कुबड़ी का हेराना ?’’

‘‘सुई हिरानी।’’

‘‘सुई लैके का करबे’’

‘‘कन्था सीबै! ’’

‘‘कन्था सी के का करबे ?’’

‘‘लकड़ी लाबै !’’

‘‘लकड़ी लाय के का करबे ?’’

‘‘भात पकइबे! ’’

‘‘भात पकाये के का करबै ?’’

‘‘भात खाबै !’’

‘‘भात के बदले लात खाबै।’’

और इसके पहले कि कुबड़ी बनी हुई मटकी कुछ कह सके, वे उसे जोर से लात मारते और मटकी मुँह के बल गिर पड़ती, उसकी कोहनिया और घुटने छिल जाते, आँख में आँसू आ जाते और ओठ दबाकर वह रूलाई रोकती। बच्चे खुशी से चिल्लाते, ‘‘मार डाला कुबड़ी को । मार डाला कुबड़ी को।’’ गुलकी यह सब देखती और मुँह फेर लेती।


एक दिन जब इसी प्रकार मटकी को कुबड़ी बनाकर गुलकी की दुकान के सामने ले गये तो इसके पहले कि मटकी जबाव दे, उन्होंने ने अनचिते में इतनी ज़ोर से ढकेल दिया कि वह कुहनी भी न टेक सकी और सीधे मुँह के बल गिरी। नाक, होंठ और भौंह ख़ून से लथपथ हो गये। वह ‘‘हाय ! हाय !’’ कर इस बुरी तरह चीख़ी कि लड़के कुबड़ी मर गयी चिल्लाते हुए सहम गये और हतप्रभ हो गये। अकस्मात् उन्होंने देखा की गुलकी उठी । वे जान छोड़ भागे। पर गुलकी उठकर आयी, मटकी को गोद में लेकर पानी से उसका मुँह धोने लगी और धोती से खून पोंछने लगी। बच्चों ने पता नहीं क्या समझा कि वह मटकी को मार रही है, या क्या कर रही है कि वे अकस्मात् उस पर टूट पड़े। गुलकी की चीख़े सुनकर मुहल्ले के लोग आये तो उन्होंने देखा कि गुलकी के बाल बिखरे हैं और दाँत से ख़ून बह रहा है, अधउघारी चबूतरे से नीचे पड़ी है, और सारी तरकारी सड़क पर बिखरी है। घेघा बुआ ने उसे उठाया, धोती ठीक की और बिगड़कर बोलीं, ‘‘औकात रत्ती-भर नै, और तेहा पौवा-भर। आपन बखत देख कर चुप नै रहा जात। कहे लड़कन के मुँह लगत हो ?’’ लोगों ने पूछ तो कुछ नहीं बोली। जैसे उसे पाला मार गया हो। उसने चुपचाप अपनी दुकान ठीक की और दाँत से खू़न पोंछा, कुल्ला किया और बैठ गयी।

उसके बाद अपने उस कृत्य से बच्चे जैसे खु़द सहम गये थे। बहुत दिन तक वे शान्त रहे। आज जब मेवा ने उसकी पीठ पर धूल फेंकी तो जैसे उसे खू़न चढ़ गया पर फिर न जाने वह क्या सोचकर चुप रह गयी और जब नारा लगाते जूलूस गली में मुड़ गया तो उसने आँसू पोंछे, पीठ पर से धूल झाड़ी और साग पर पानी छिड़कने लगी। लड़के का हैं गल्ली के राक्षस हैं !’’ घेघा बुआ बोलीं। ‘‘अरे उन्हें काहै कहो बुआ ! हमारा भाग भी खोटा है !’’ गुलकी ने गहरी साँस लेकर कहा....।

इस बार जो झड़ी लगी तो पाँच दिन तक लगातार सूरज के दर्शन नहीं हुए। बच्चे सब घर में क़ैद थे और गुलकी कभी दुकान लगाती थी, कभी नहीं, राम-राम करके तीसरे पहर झड़ी बन्द हुई। बच्चे हकीमजी के चौतरे पर जमा हो गये। मेवा बिलबोटी बीन लाया था और निरमल ने टपकी हुई निमकौड़ियाँ बीनकर दुकान लगा ली थी और गुलकी की तरह आवाज़ लगा रही थी, ‘‘ले खीरा, आलू, मूली, घिया, बण्डा !’’ थोड़ी देर में क़ाफी शिशु-ग्राहक दुकान पर जुट गये। अकस्मात् शोरगुल से चीरता हुआ बुआ के चौतरे से गीत का स्वर उठा बच्चों ने घूम कर देखा मिरवा और मटकी गुलकी की दुकान पर बैठे हैं। मटकी खीरा खा रही है और मिरवा झबरी का सर अपनी गोद में रखे बिलकुल उसकी आँखों में आँखें डालकर गा रहा है।


तुरन्त मेवा गया और पता लगाकर लाया कि गुलकी ने दोनों को एक –एक अधन्ना दिया है दोनों मिलकर झबरी कुतिया के कीड़े निकाल रहे हैं। चौतरे पर हलचल मच गयी और मुन्ना ने कहा, ‘‘निरमल ! मिरवा-मटकी को एक भी निमकौड़ी मत देना। रहें उसी कुबड़ी के पास !’’ ‘‘हाँ जी !’’ निरमल ने आँख चमकाकर गोल मुंह करके कहा, ‘‘हमार अम्माँ कहत रहीं उन्हें छुयो न ! न साथ खायो, न खेलो। उन्हें बड़ी बुरी बीमारी है। आक थू !’’ मुन्ना ने उनकी ओर देखकर उबकायी जैसा मुँह बनाकर थूक दिया।

गुलकी बैठी-बैठी सब समझ रही थी और जैसे इस निरर्थक घृणा में उसे कुछ रस-सा आने लगा था। उसने मिरवा से कहा, ‘‘तुम दोनों मिल के गाओ तो एक अधन्ना दें। खूब जोर से !’’ भाई-बहन दोनों ने गाना शुरू किया-माल कताली मल जाना, पल

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Wednesday 11 November 2015

आखरी मकसद- सुरेन्द्र मोहन पाठक

Akhri Maqsad by Surendra Mogan Pathak 

कहते हैं दुनिया में हर किसी का कहीं न कहीं कोई न कोई डबल होता है ! सुधीर कोहली की बदकिस्मती थी कि उसका डबल दिल्ली में ही निकल आया था ! और अब उन दोनों में से एक का मरना लाजिमी था !

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पृच्छन्न (महासमर भाग 6) - नरेंद्र कोहली


Prichhann (Mahasamar 6) by Narendra Kohli 

महाकाल असंख्य वर्षों की यात्रा कर चुका है, किन्तु न मानव की प्रकृति परिवर्तित हुई है, न प्रकृति के नियम। उसका ऊपरी आवरण कितना भी भिन्न क्यों न दिखाई देता हो, मनुष्य का मनोविज्ञान आज भी वही है, जो सहस्त्रों वर्ष पूर्व था।

बाह्य संसार के सारे घटनात्मक संघर्ष वस्तुतः मन के सूक्ष्म विकारों के स्थूल रूपांतरण मात्र हैं। अपनी मर्यादा का अतिक्रमण कर जाए, तो ये मनोविकार, मानसिक विकृतियों में परणीत हो जाते हैं। दुर्योधन इसी प्रक्रिया का शिकार हुआ है। अपनी आवश्यकता भर पाकर वह संतुष्ट नहीं हुआ। दूसरों का सर्वस्व छीनकर भी वह शांत नहीं हुआ। पांडवों की पीड़ा उसके सुख की अनिवार्य शर्त थी। इसलिए वंचित पांडवों को पीड़ित और अपमानित कर सुख प्राप्त करने की योजना बनाई गई। घायल पक्षी को तड़पाकर बच्चों को क्रीड़ा का-सा-आनन्द आता है। मिहिर कुल को अपने युद्धक गजों को पर्वत से खाई में गिरकर उनके पीड़ित चीत्कारों को सुनकर असाधारण सुख मिला था। अरब शेखों को ऊँटों की दौड़ में, उनकी पीठ पर बैठे बच्चों की अस्थियों और पीड़ा से चिल्लाने को देख-सुनकर सुख मिलता है। महासमर-6 में मनुष्य का मन अपने ऐसे ही प्रच्छन्न भाव उद्घाटित कर रहा है।


दुर्वासा ने बहुत तपस्या की है, किंतु न अपना अहंकार जीता है न क्रोध। एक अहंकारी और परपीड़क व्यक्तित्व, प्रच्छन्न रूप से उस तापस के भीतर विद्यमान है। वह किसी के द्वार पर आता है, तो धर्म देने के लिए नहीं। वह तमोगुणी तथा रजोगुणी लोगों को वरदान देने के लिए और सतोगुणी लोगों को वंचित करने के लिए आता है। पर पांडव पहचानते हैं कि संन्यासियों का समूह, जो उनके द्वार पर आया है सात्विक संन्यासियों का समूह नहीं है। यह एक प्रच्छन्न टिड्डी दल है जो उनके अन्न भण्डार को समाप्त करने आया है। ताकि जो पांडव दुर्योधन के शस्त्रों से न मारे जा सके, वे अपनी भूख से मर जाएँ।


दुर्योधन के सुख में प्रच्छन्न रूप से बैठा है, दुख और युधिष्ठिर की अव्यावहारिकता में प्रच्छन्न रूप से बैठा है धर्म। यह माया की सृष्टि है जो प्रकट रूप में दिखाई देता है, वह वस्तुतः होता नहीं, और जो वर्तमान है वह कहीं दिखाई नहीं देता।

पांडवों का आज्ञातवास, महाभारत-कथा का एक बहुत आकर्षक स्थल है। दुर्योधन की ग्रध्र दृष्टि से पांडव कैसे छिपे रह सके ? अपने आज्ञातवास के लिए पांडवों ने विराटनगर को ही क्यों चुना ? पांडवों के शत्रुओं में प्रच्छन्न मित्र कहां थे और मित्रों में प्रच्छन्न शत्रु कहाँ पनप रहे थे ?...ऐसे ही अनेक प्रश्नों को समेटकर आगे बढ़ती है, महासमर के इस छठे खंड ‘प्रच्छन्न की कथा। पाठक पूछता है कि यदि उसे महाभारत की ही कथा पढ़नी है तो वह व्यास कृत मूल महाभारत ही क्यों न पढ़े, नरेन्द्र कोहली का उपन्यास क्यों पढ़े ? वह यह भी पूछता है कि उसे उपन्यास ही पढ़ना है तो वह समसामायिक उपन्यास क्यों न पढ़े, नरेन्द्र कोहली का ‘महासमर’ ही क्यों पढ़े ??


‘महाभारत’ हमारा काव्य भी है, इतिहास भी और आध्यात्म भी। हमारे प्राचीन ग्रंथ शाश्वत सत्य की चर्चा करते हैं। वे किसी कालखंड के सीमित सत्य में आबद्ध नहीं हैं, जैसा कि यूरोपीय अथवा यूरोपीयकृत मस्तिष्क अपने अज्ञान अथवा बाहरी प्रभाव को मान बैठा है। नरेन्द्र कोहली ने न महाभारत को नए संदर्भों में लिखा है, न उसमें संशोधन करने का कोई दावा है। न वे पाठक को महाभारत समझाने के लिए उसकी व्याख्या मात्र कर रहे हैं। वे यह नहीं मानते कि महाकाल की यात्रा खंडों में विभाजित है, इसलिए जो घटनाएँ घटित हो चुकीं, उनसे अब हमारा कोई संबंध नहीं है। न तो प्रकृति के नियम बदले हैं, न मनुष्य का मनोविज्ञान। मनुष्य की अखंड कालयात्रा को इतिहास खंडों में बाँटे तो बाँटे, साहित्य उन्हें विभाजित नहीं करता, यद्यपि ऊपरी आवरण सदा ही बदलते रहते हैं।


महाभारत की कथा भारतीय चिंतन और भारतीय संस्कृति की अमूल्य थाती है। नरेन्द्र कोहली ने उसे ही अपने उपन्यास का आधार बनाया है। महासमर की कथा मनुष्य के उस अनवरत युद्ध की कथा है, जो उसे अपने बाहरी और भीतरी शत्रुओं के साथ निरंतर करना पड़ता है। वह उस संसार में रहता है, जिसमें चारों ओर लाभ और स्वार्थ की शक्तियाँ संघर्षरत हैं। बाहर से अधिक उसे अपने भीतर लड़ना पड़ता है। परायों से अधिक उसे अपनों से लड़ना पड़ता है। और वह अपने धर्म पर टिका रहता है तो वह इसी देह में स्वर्ग जा सकता है। इसका आश्वासन ‘महाभारत’ देता है। लोभ, त्रास और स्वार्थ के विरूद्ध धर्म के इस सात्विक युद्ध को नरेन्द्र कोहली एक आधुनिक और मौलिक उपन्यास के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।... और वह है ‘महासमर’। ‘प्रच्छन्न’ महासमर का छठा खंड है। आप इसे पढ़ें और स्वयं अपने आप से पूछें, आपने इतिहास पढ़ा ? पुराण पढ़ा ? धर्मग्रंथ पढ़ा अथवा एक रोचक उपन्यास ? इसे पढ़कर आपका मनोरंजन हुआ ? आपका ज्ञान बढ़ा ?अथवा आपका विकास हुआ ? क्या आपने इससे पहले कभी ऐसा कुछ पढ़ा था ?

डाउनलोड करें- पृच्छन्न

Sunday 8 November 2015

बबूसा - अनिल मोहन

Babusa (Anil Mohan) बबूसा सीरीज़ का पहला उपन्यास 

हमारी पृथ्वी पर अभी भी ऐसा बहुत कुछ है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं करते! हम दूसरे ग्रहों को तो खोज रहे हैं परंतु पृथ्वी से अंजान हैं अभी! इसी पृथ्वी की एक जाति की चमत्कारी दास्तान है ये, जिसका वास्ता, कहीं दूर दुसरी दुनिया के एक ग्रह से है! ये दास्तान देवराज चौहान से ही सैकड़ों बरसों पहले शुरू हुई थी और अब उसका रुख फिर देवराज चौहान की तरफ मुड चुका है!

डाउनलोड करें- बबूसा

Thursday 5 November 2015

अरब देश की अजब कथाएँ


Arab Desh ki Ajab Kathaen 

हर देश की अपनी संस्कृति होती है| अरब देश हमेशा से ही बहुत आकर्षक रहा है क्योंकि वाहा का रहें सहन और वाहा की तहज़ीब यहा से अलग है| इसी वजह से वाहा की कहानियाँ भी बहुत अनोखी और पढ़ने में मज़ेदार होती है| रहस्य से पारी पूर्ण और लुभावनी ये कहानियाँ ज़रूर पढ़नी चाहिए

डाउनलोड करें- अरब देश की अजब कथाएं

Wednesday 4 November 2015

डायन (वेदप्रकाश शर्मा)

Dayan by Ved Prakash Sharma
डायन ...एक औरत के पति की मृत्यु हो गई। उसकी बुद्धि भ्रष्ट हुई तो पति को जिंदा करने के लिए दूसरों के बच्चांे की बलि देने लगी। पर उसे मालूम नहीं था कि किसी की आंखें सपनों में उसकी करतूतें देख रही हैं। फिर सपने देखने वाले और उस औरत के बीच जंग शुरु हुई, मगर वे तो सिर्फ बहाना थे, असली जंग तो माता दुर्गा और डायन के बीच थी और जब मां जगदम्बा अपने रौद्र रूप में आईं तो काली शक्तियों के चेहरे सफेद पड़ गए।

डायन-२ में एक ऐसे माँ की कहानी लेकर आया है
जिसके पास शरीर नहीं था । जो भावनाओं के भवर में बह रही थी और जिसे पारलौकिक दुनिया
की दुष्टात्माओं से टकराना था ।


डाउनलोड करें- डायन भाग 1

डाउनलोड करें- डायन भाग 2

Monday 2 November 2015

बीवी का नशा (वेद प्रकाश शर्मा)


विभा जिंदल सीरीज़ 

Biwi ka Nasha (Ved Prakash Sharma) 

लोग कहते थे की वह अपनी बीवी के नशे में रहता है । सच था भी यही । बीवी को एक नेकलेस से नवाजने के लिए उसने एक हत्या कर दी और उस हत्या के जुर्म में उसकी बीवी ही पकड़ी गई । अब वह साबित करना चाहता था कि हत्या उसकी बीवी ने नहीं बल्कि उसी ने की है मगर यह बात वह साबित नहीं कर पा रहा था ।

डाउनलोड करें- बीवी का नशा

दूर की कौड़ी (वेद प्रकाश शर्मा)


Door Ki Kaudi (Ved Prakash Sharma)

ऐसा चालबाज़ शख्स, जो दूसरों से अपने मन माफिक चालें चलवाता था,

जबकि वे समझते थे कि ऐसा वे अपनी मर्ज़ी से कर रहे है ।

डाउनलोड करें- दूर की कौड़ी

Sunday 1 November 2015

वर्दी वाला गुंडा (वेद प्रकाश शर्मा)


Vardi Wala Gunda by Ved Prakash Sharma

वर्दी वाला गुंडा वेद प्रकाश शर्मा का सफलतम थ्रिलर उपन्यास है। इस उपन्यास की आजतक लगभग 8 करोड़ प्रतियाँ बिक चुकी हैं। भारत में जनसाधारण में लोकप्रिय थ्रिलर उपन्यासों की दुनिया में यह उपन्यास "क्लासिक" का दर्जा रखता है।


डाउनलोड करें- वर्दी वाला गुंडा

कृष्ण कुंजी - अश्विन सांघी


Krishna Kunji (Krushna Key) by Ashwin Sanghi

5000 साल पहले एक चलमतकारी वयक्तित्व का जन्म हुआ था धरती पर, जिनका नाम कृष्ण रखा गया था। मानवता को भय था की यदी प्रभु कृष्ण का निधन हो गया तो बुरायी और दानव वापस से धरती पर राज करने लगेंगे, पर उनको ये विश्वास दिलाया गया कि जब भी ज़रूरत होगी, प्रभु फिर से धरती पर जन्म लेंगे - कलयुग में। नये दौर में एक गरीब लड़का जन्म लेता है और ये सोचते हुए बड़ा होता है कि वही भगवान का नया अवतार है। पर असल में वो एक सेरियल किलर है। इस पुस्तक में जहाँ शुरुअत होती है एक व्यक्ति से जो बहुत सूझ बूझ के साथ हत्या करता है, वही एक साजिश भी सामने आती है - कृष्ण कि विरासत जो वो मनुष्यता के लिये छोड़ गए थे। क्या इस विरसत का पता लगाया जा पाएगा?

डाउनलोड करें- कृष्ण कुंजी

जिन खोजा तिन पाइया

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रतिष्ठित लेखक अयोध्याप्रसाद गोयलीय के इस अप्रतिम कथा-संग्रह, ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ को यदि हिन्दी का हितोपदेश कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। वहीं अनुभव, वहीं ज्ञान, वही विवेक है इसमें।


अनुभवी लेखक गोयलीय जी ने जीवन और जगत में जो देखा, सुना, पढ़ा और समझा, प्रस्तुत कृति में सरल सुबोध शैली में सँजोकर रख दिया हैं। इसमें जीवन-निर्माण एवं उत्साह, प्रेरणा और शक्ति प्रदान करने वाली 102 लघु-कथाएँ हैं। इनका स्वरूप लघु है पर ज्ञान-गुम्फन की दृष्टि से सागर जैसी प्रौढ़ता, विशालता तथा विस्तार है। इनमें बहुत-सी कहानियाँ मनुष्य के अन्तर की उस ऊँचाई को पाठक के सामने पेश करती हैं जो उसे सचमुच मनुष्य बनाती हैं। हिन्दी के सहृदय पाठक को समर्पित है भारतीय ज्ञानपीठ की एक सुन्दर कृति, नयी साज-सज्जा के साथ।


आमुख

गोयलीयजी-की क़लम ने अपनी जादूगरी से हिन्दी-पाठकों को मोह रखा है। ‘शेर-ओ-शायरी’ और ‘शेर-ओ-सुख़न’ उनकी ऐसी कृतियाँ हैं जो साहित्य में सदा स्मरणीय रहेंगी। दो वर्ष पूर्व जब उनकी पुस्तक ‘गहरे पानी पैठ’ प्रकाशित हुई तो साधारण पाठक और असाधारण आलोचक- सभी उसकी लोकप्रिय विषय-वस्तु और रोचक शैली से प्रभावित हुए। चुटीली कहानियाँ, अद्भुत घटनाएँ, मज़ेदार चुटकुले, दिलचस्प लतीफ़े, गहरे अनुभव, पढ़े-सुने क़िस्से- सभी कुछ इस ढंग से लिखे गये हैं कि पाठकों का ज्ञान, प्रेरणा और मनोरंजन एक जगह एक साथ मिल जाता है। 

गोयलीयजी की यह नयी कृति ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ भी उतनी ही ज्ञानवर्द्धक, प्रेरक और रोचक है, जितनी ‘गहरे पानी पैठ’; बल्कि इसमें शैली का निखार कुछ अधिक ही है। इसे बालक तो चाव से पढ़ ही सकते हैं, युवकों को भी इससे प्रेरणा और दृष्टि मिलेगी। बुर्ज़ुर्गों को इसमें उनके अपने अनुभवों के प्रत्यावर्तन और प्रतिध्वनि की प्रतीति होगी। चूँकि ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ में केवल वहीं है जो लेखक ने स्वयं देखा है, दूसरों से सुना है, पुस्तकों में पढ़ा है या बुद्धि से समझा है, इसलिए इसमें बहुत कुछ ऐसा होना चाहिए जो आपने भी देखा-सुना या पढ़ा-गुना हो। पर देखने-देखने में, सुनने-सुनने में और पढ़ने-पढ़ने में अन्तर है। अपने-अपने दृष्टिकोण से वस्तु को समझाने में तो अन्तर होना ही हुआ।

हम-आप भी रात-दिन में सफ़र करते हैं, पर हममें से कितने ऐसे हैं, जिन्हें सन्तोषी थानेदार, त्यागी भिखारी, विनयशील सन्यासी, पैसे को हाथ न लगाने वाला पानीपाँड़े और दो दिन भूखे रहकर भी कर्ज़ के पैसों को बिना बरते लौटानेवाला शानदार चपरासी सहयात्री के रूप में मिलते हैं। ऐसे व्यक्ति जो अभावों में रहकर मुस्कुराते हैं और दूसरों की अयाचित ‘कृपा’ को भी अपनी मुफ़लिसी की शान से ‘याचना-सा’ बना देते हैं- जिनको कुछ दे सकने में दाता अपने को उपकृत समझे ! यह बात नहीं कि गोयलीयजी को गिरहकट या उजलेपोश बदमाश नहीं मिलते-बहुत मिलते हैं। उनसे उचक्कों और गिरहकटों के क़िस्से सुनिए कि कैसे दिन-दहाड़े उनके देखते-देखते एक उचक्का यह कहकर बिस्तर-ट्रंक ले उड़ा कि ‘भाई साहब, गाड़ी आने में देर है; इज़ाजत दें तो बीवी-बच्चों को आपके ट्रंक-बिस्तरे पर बिठा दूँ।’ किस तरह एक ‘सज्जन’ बातों-बातों में अपना आगरे का पता बता चुकने के बाद पार्सल की रसीद भरने के लिए पार्कर पेन माँगकर सामने लिखते-लिखते चम्पत हो गये और उनकी दो रुपये की ख़ाली पेटी लिये-लिये गोयलीयजी क़ुली बने घूमते रहे पर किसी रेलवे अधिकारी ने टूटी ख़ाली पेटी को सँभालकर रखने की कृपा न दिखायी। इलाहाबाद के एक होटल में हम लोग ठहरे तो होटल के मैनेजर गोयलीयजी के ‘दोस्त’ बन गये। एक रोज़ शाम तक मैनेजर न लौटे तो बैरा ने शुबा डाल दिया कि कहीं मैनेजर किसी एक्सीडेंट की चपेट में न आ गये हों। अब गोयलीयजी जैसे कि तैसे उनकी तलाश में निकल पड़े। बहुत रात गये लौटने पर पता चला कि वास्तव में ‘एक्सीडेंट’ यह हुआ है कि गोयलयजी के पर्स, घड़ी और पेन मिलकर मैनेजर को भगा ले गये- क्योंकि पुलिस की ‘कोशिशों’ के बावजूद चारों में से किसी का पता न चला। दौड़-धूप में और पुलिस के चाय-पानी में सिर्फ़ पचास रुपये खर्च पड़े होंगे- सिर्फ़ पचास रुपये में ही ख़ूब मोटा फ़ाइल गोयलयजी की ख़ातिर पुलिस ने बना दिया था। आप मुस्कराएँगे और कहेंगे कि दो-चार क़िस्से तो इस तरह के हमारे साथ भी गुज़रे हैं। और सौ-पचास क़िस्से आपको अपने दोस्तों के भी याद आ जाएँगे। ....फिर आप चौंकेंगे और सोचेंगे कि दुनियाँ में घटनाएँ तो ज़्यादातर दूसरे ही प्रकार की घटती हैं, फिर गोयलयजी को इस तरह के थानेदार, भिक्षुक, पानीपाँड़े और चपरासी कहाँ से मिल जाते हैं, और कैसे मिल जाती है थर्ड क्लास में फूल-सी नाज़नी जो माथे पर हाथ रखकर सोयी हुई होती है तो उपमा सूझती है :


दमे-ख़ाब है दस्ते-नाज़ुक जबीं पर

किरन चाँद की गोद में सो रही है

डाउनलोड करें- जिन खोजा तिन पाइया

Saturday 31 October 2015

अंतराल (महासमर भाग 5)- नरेंद्र कोहली


Antral (Mahasamar - 5) by Narendra Kohli 

‘महासमर’ का यह पाँचवा खंड है- ‘अंतराल’।
इस खंड में, द्यूत में हारने के पश्चात पांडवों के वनवास की कथा है। कुन्ती, पाण्डु के साथ शत-श्रृंग पर वनवास करने गई थी। लाक्षागृह के जलने पर, वह अपने पुत्रों के साथ हिडिम्ब वन में भी रही थी। महाभारत की कथा के अन्तिम चरण में, उसने धृतराष्ट्र, गांधारी तथा विदुर के साथ भी वनवास किया था।....किन्तु अपने पुत्रों के विकट कष्ट के इन दिनों उनके साथ में वह हस्तिनापुर मे विदुर के घर रही। क्यों ? 

पांडवों की पत्नियाँ-देविका, बलधरा, सुभद्रा, करेणुमति और विजया, अपने-अपने बच्चों के साथ अपने-अपने मायके चली गई; किन्तु द्रौपदी कांपिल्य नहीं गई। वह पांडवों के साथ वन में ही रही। क्यों ?
कृष्ण चाहते थे कि वे यादवों के बाहुबल से, दुर्योधन से पांडवों का राज्य छीनकर, पांडवों को लौटा दें, किन्तु वे ऐसा नहीं कर सके। क्यों ? सहसा ऐसा क्या हो गया कि बलराम के लिए धृतराष्ट्र तथा पांडव, एक समान प्रिय हो उठे, और दुर्योधन को यह अधिकार मिल गया कि वह कृष्ण से सैनिक सहायता माँग सके और कृष्ण उसे यह भी न कह सकें कि वे उसकी सहायता नहीं करेंगे ? 

इतने शक्तिशाली सहायक होते हुए भी, युधिष्ठिर क्यों भयभीत थे ? उन्होंने अर्जुन को किन अपेक्षाओं के साथ दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए भेजा था ? अर्जुन क्या सचमुच स्वर्ग गये थे, जहाँ देह के साथ कोई नहीं जा सकता ? क्या उन्हें साक्षात् महादेव के दर्शन हुए थे ? अपनी पिछली त्राया में तीन-तीन विवाह करने वाले अर्जुन के साथ ऐसा क्या हो गया कि उसने उर्वशी के काम-निवेदन का तिरस्कार कर दिया ?

इस प्रकार अनेक प्रश्नों के उत्तर निर्दोष तर्कों के आधार पर ‘अंतराल’ में प्रस्तुत किए गए हैं। यादवों की राजनीति, पांडवों के धर्म के प्रति आग्रह, तथा दुर्योधन की मदांधता संबंधी यह रचना पाठक के सम्मुख इस प्रख्यात कथा के अनेक नवीन आयाम उद्घाटित करती है। कथानक का ऐसा निर्माण, चरित्रों की ऐसी पहचान तथा भाषा का ऐसा प्रवाह-नरेन्द्र कोहली की लेखनी से ही संभव है ! प्रख्यात कथाओं का पुनर्सृजन उन कथाओं का संशोधन अथवा पुनर्लेखन नहीं होता; वह उनका युग-साक्षेप अनुकूलन मात्र भी नहीं होता। पीपल के वृक्ष, पीपल होते हुए भी, स्वयं में एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है; वह न किसी का अनुसरण है, न किसी का नया संस्करण ! मौलिक उपन्यास का भी यही सत्य है।

मानवता के शाश्वत प्रश्नों का साक्षात्कार लेखक अपने गली-मुहल्ले, नगर-देश, समाचार-पत्रों तथा समकालीन इतिहास में आबद्ध होकर भी करता है; और मानव सभ्यता तथा संस्कृति की संम्पूर्ण जातीय स्मृति के सम्मुख बैठकर भी। पौराणिक उपन्यासकार के ‘प्राचीन’ में घिरकर प्रगति के प्रति अन्धे हो जाने की संभावना उतनी ही घातक है, जितनी समकालीन लेखक की समसामयिक पत्रकारिता में बन्दी हो, एक खंड सत्य को पूर्ण सत्य मानने की मूढ़ता। सृजक साहित्यकार का सत्य अपने काल-खंड का अंग होते हुए भी, खंडों के अतिक्रमण का लक्ष्य लेकर चलता है।

नरेन्द्र कोहली का नया उपन्यास है ‘महासमर’। घटनाएँ तथा पात्र महाभारत से संबद्ध हैं; किन्तु यह कृति एक उपन्यास है-आज के लेखक का मौलिक सृजन !

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युकिलिप्टस की डाली - कृष्णचन्द्र

Friday 30 October 2015

ज़िद्दी - इस्मत चुगताई


Ziddi - Ismat Chugtai

इस उपन्यास पर हिंदी फ़िल्म बनी थी

‘जिद्दी’ उपन्यास एक दुःखद प्रेम कहानी है जो हमारी सामाजिक संरचना से जुड़े अनेक अहम सवालों का अपने भीतर अहाता किये हुए है। प्रेम संबंध और सामाजिक हैसियत के अन्तर्विरोध पर गाहे-बगाहे बहुत कथा कहानियाँ लिखा जाती रहीं हैं लेकिन ‘जिद्दी’ उपन्यास इनसे अलग विशिष्टता रखता है।
यह उपन्यास हरिजन प्रेम का पाखण्ड करने वाले राजा साहब का पर्दाफाश भी करता है, और साथ ही औरत पर औरत के जुल्म की दास्तान भी सुनाता है।

‘जिद्दी’ उपन्यास के केन्द्र में दो पात्र हैं-पूरन और आशा। पूरन एक अर्द्ध-सामंतीय परिवेश में पला-बढ़ा नौजवान है जिसे बचपन से वर्गीय श्रेष्ठता बोध का पाठ पढाया गया है। कथाकार ने पूरन के चरित्र का विकास ठीक इसके विपरात दिशा मे किया है। उसमें तथाकथित राजसी वैभव से मुक्त अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण की जिद है और वह एक जिद्दी की तरह अपने आचरण को ढाल लेता है। आशा उसके खानदान खिलाई (बच्चों को खिलाने वाली स्त्री) की बेटी है। नौकरानी आशा के लाजभरे सौन्दर्य का पूरन आसक्त हो जाता है। वर्गीय हैसियत का अन्तर इस प्रेम की त्रासदी में बदल जाता है। पूरन की जिद उसे मृत्यु की ओर धकेलती है। पारिवारिक दबाववश उसका विवाह शान्ता के साथ हो जाता है और इस तरह दो स्त्रियों-आशा और शान्ता का जीवन एक साथ उजड़ जाता है। यहीं इस्मत चुगताई स्त्री के सुखों और दुःखों को पुरुष से अलग करके बताती है, ‘‘मगर औरत ? वो कितनी मुख्तविफ होती है। उसका दिल हर वक्त सहमा हुआ रहता है। हँसती है तो डर के, मुस्कराती है तो झिझक कर।’’ दोनों स्त्रियाँ इसी नैतिक संकोच की बलि चढती हैं। 

जिद्दी के रूप में पूरन के व्यक्तित्व को बड़े ही कौशल के साथ उभारा गया है। इसके अलावा भोला की ताई, चमकी, रंजी आदि के घर के नौंकरों और नौकरानियों की संक्षिप्त उपस्थिति भी हमें प्रभावित करती है। इस्मत अपने बातूनीपन और विनोदप्रियता के लहजे के सहारे चरित्रों में ऐसे खूबसूरत रंग भरती हैं कि वे सजीव हो उठते हैं एक दुःखान्त उपन्यास में भोला की ताई जैसे हँसोड़ और चिड़चिड़े पात्र की सृष्टि कोई बड़ा कथाकार ही कर सकता है। छोटे चरित्रों को प्रभावशाली बनाना मुश्किल काम है।

‘जिद्दी’ उपन्यास में इस्मत का उद्धत अभिव्यक्ति और व्यंग्य का लहजा बदस्तूर देखा जा सकता है। बयान के ऐसे बहुत से ढंग और मुहावरे उन्होंने अपने कथात्मक गद्य में सुरक्षित कर लियें हैं जो अब देखें-सुने नहीं जाते। इस उपन्यास में ऐसी कामयाब पाठनीयता है कि हिन्दी पाठक इसे एक ही बार में पढ़ने का आनन्द उठाना चाहेंगे।


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युगपथ - सुमित्रानंदन पंत

Yugpath - Sumitranandan Pant
युगपथ सुमित्रानन्दन पंत की 1948 ई. में प्रकाशित रचना है। सुमित्रानन्दन पंत का नवाँ काव्य-संकलन है। इसका पहला भाग 'युगांत' का नवीन और परिवर्द्धित संस्करण है। दूसरे भाग का नाम 'युगांतर' रखा गया है, जिसमें कवि की नवीन रचनाएँ संकलित हैं। अधिकांश रचनाएँ गाँधी जी के निधन पर उनकी पुण्य स्मृति के प्रति श्रद्धांजलियाँ हैं। शेष रचनाओं में कवीन्द्र रवीन्द्र, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर और अरविन्द घोष के प्रति लिखी गयी प्रशस्तियाँ भी मिलती हैं। अनेक रचनाओं पर कवि के अरविन्द-साहित्य के अध्ययन की छाप स्पष्ट है। अंतिम रचना 'त्रिवेणी' ध्वनि-रूपक है, जिसमें गंगा, यमुना और सरस्वती को तीन विचार धाराओं का प्रतिनिधि मानकर उनके संगम में मानव-मात्र के कल्याण की कल्पना की गयी है।
'युगपथ' का सबसे बड़ा आकर्षण 'श्रद्धा के फूल' शीर्षक सोलह रचनाएँ हैं, जिसमें कवि ने बापू के मरण में अभिनव जीवनकल्प की कल्पना की है, और इन्हें अपराजित अहिंसा की ज्योतिर्मयी प्रतिमा के रूप में अंकित किया है। गांधीजी के महान व्यक्तित्व और कृतित्व को सोलह रचनाओं में समेट लेना कठिन है और 'युगांत' तथा 'युगवाणी' में पंत ने उनके तथा उनकी विचारधारा को कवि-हृदय की अपार सहानुभूति देकर चित्रित किया है। परंतु इन सोलह रचनाओं में बापू को श्रद्धांजलि देते हुए कवि काव्य, कला और संवेदना के उच्चतम शिखर पर पहुँच जाता है फिर शोक-भावना से अभिभूत, परंतु अंत में वह उनकी मृत्यु को 'प्रथम अहिंसक मानव' के बलिदान के रूप में चित्रित कर उनकी महामानवता की विजय घोषित करता है। वह शुभ्र पुरुष (स्वर्ण पुरुष) के रूप में बापू का अभिनन्दन करता और उन्हें भारत की आत्मा मानकर देश को दिव्य जागरण के लिए आहूत करता है। यह सोलह प्रशास्ति-गीतियाँ कवि की 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' साधना की प्रतिनिधि हैं।

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Sunday 25 October 2015

इक्ष्वाकु के वंशज (अमिश)

अमिश का रामायण आधारित उपन्यास 

Ikshwaku ke Vanshaj (Amish)
मेलुहा के मृत्युंजय, नागाओं का रहस्य और वायुपुत्रों की शपथ की अपर सफलता के बाद अमिश की राम पर आधारित एक नयी श्रृंखला 

३4०० ईसापूर्व, भारत

अलगावों से अयोध्या कमज़ोर हो चुकी थी. एक भयंकर युद्ध अपना कर वसूल रहा था. नुक्सान बहुत गहरा था. लंका का राक्षस राजा, रावण पराजित राज्यों पर अपना शासन लागू नहीं करता था. बल्कि वह वहां के व्यापार को नियंत्रित करता था. साम्राज्य से सारा धन चूस लेना उसकी नीति थी. जिससे सप्तसिंधु की प्रजा निर्धनता, अवसाद और दुराचरण में घिर गई. उन्हें किसी ऐसे नेता की ज़रूरत थी, जो उन्हें दलदल से बाहर निकाल सके. नेता उनमें से ही कोई होना चाहिए था. कोई ऐसा जिसे वो जानते हों. एक संतप्त और निष्कासित राजकुमार. एक राजकुमार जो इस अंतराल को भर सके. एक राजकुमार जो राम कहलाए.

वह अपने देश से प्यार करते हैं. भले ही उसके वासी उन्हें प्रताड़ित करें. वह न्याय के लिए अकेले खड़े हैं. उनके भाई, उनकी सीता और वह खुद इस अंधकार के समक्ष दृढ़ हैं.क्या राम उस लांछन से ऊपर उठ पाएंगे, जो दूसरों ने उन पर लगाए हैं ?क्या सीता के प्रति उनका प्यार, संघर्षों में उन्हें थाम लेगा?क्या वह उस राक्षस का खात्मा कर पाएंगे, जिसने उनका बचपन तबाह किया?क्या वह विष्णु की नियति पर खरा उतरेंगे?

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Saturday 24 October 2015

योद्धा (Yoddha#1 by Raj Comics)


योद्धा सीरीज़ का पहला कॉमिक

Yoddha
धरती पर आया एक भूकम्प और भूकम्प से बनी दरार में से निकला एक शूरवीर 'योद्धा' और जा पहुंचा राजनगर शहर जहाँ उसके हथियार पर लगे हीरे पर नज़र पड़ी कुछ उचक्कों की और उन्होंने घेर लिया योद्धा को। हर चीज़ से अनजान योद्धा को उस स्तिथि याद आने लगा अपना अतीत जहाँ वो अकेला टक्कर ले रहा था गुलामों की मल्लिका लोहांगी की खुनी सेना से परन्तु उसको धोखे से बंदी बना लिया उस सेना के सरदार बल्लार ने और ले चला बंदी बनाकर लोहांगी के पास। परन्तु उसके जहाज़ पर हमला कर दिया एक और हमलावर जंजीबार ने। योद्धा के आक्रमण से पहले से ही कमज़ोर बल्लार नहीं टिक पाया इस हमले से तब योद्धा ने ही की मदद बल्लार की और बल्लार बन गया योद्धा का साथी। जंजीबार को हरा योद्धा और बल्लार अब चल दिए लोहांगी से विद्रोह करने इधर जंजीबार भी भाग कर पहुंचा अपनी महारानी शांबरी के पास जो थी लोहांगी की ही बहन और जिसको थी तलाश योद्धा की। और फिर...........?

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दंगा (Tiranga#1 by Raj Comics)


तिरंगा सीरीज़ का पहला कॉमिक 

Danga (Tiranga)


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इंस्पेक्टर स्टील (Steel#1 by Raj Comics)


इंस्पेक्टर स्टील सीरीज़ का पहला कॉमिक 

Inspector Steel


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आई शक्ति (Shakti#1 by Raj Comics)


शक्ति सीरीज़ का पहला कॉमिक

Aayi Shakti (Shakti)

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परमाणु (Parmanu#1 by Raj Comics)


परमाणु सीरीज़ का पहला कॉमिक

Parmanu

दिल्ली पुलिस को मिली कुख्यात आतंकवादी सपेरा के दिल्ली में छुपे होने की सुचना और वो जा पहुंची सपेरा को गिरफ्तार करने। पर सपेरा पुलिस के हाथ से बच निकला लेकिन एक रहस्यमय मानव "परमाणु" ने उसको अपनी अद्भुत शक्तियों के द्वारा पकड़ लिया। इधर सपेरा ग्रुप के आतंकवादी अपने लीडर सपेरा को छुड़ाने के लिए करने लगे दिल्ली में तबाही की तैयारी और उन्हें रोकने के लिए एक बार फिर सामने आया वही हवा में उड़ता रहस्यमय परमाणु। और फिर.....................?

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कर्फ्यू (Doga#1 by Raj Comics)


डोगा सीरीज़ का पहला कॉमिक

सालों  पहले चम्बल की घाटी में आतंक मचाने वाला डाकू हलकान सिंह पुलिस से जान बचाते हुए जिसको मिला कूड़े के ढेर पर पड़ा एक नवजात बच्चा जिसको अपनी जान बचाने के लिए ढाल बनाया उसने। वही कुख्यात डाकू हलकान सिंह जो आज जाना माना मंत्री हलकट सिंह बन चूका था उसको मिली धमकी की ठीक 2 बजे उसको मौत के घाट उतार दिया जायेगा। इस धमकी के बाद पूरे शहर पर लगा दिया गया कर्फ्यू और उस कर्फ्यू के बीच हलकट सिंह को मौत देने आ पहुंचा कुत्ते का मास्क पहने एक रहस्यमय इंसान 'डोगा '। और फिर.............?

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भेड़िया (Bhediya#1 by Raj Comics)


भेड़िया सीरीज़ का पहला कॉमिक

Bheriya 
पेशेवर शिकारी काला बच्चा जिसने दुनिया के अलग-अलग कोने से बुलवाया अपने- अपने हुनर में माहिर 6 लोगों को और इन्हें बताया आसाम के जंगल के बांगडा कबीले के बारे में जहाँ था एक रहस्यमय भेड़िया मुख पहाड़ जिसमे रखी थी एक बेशकीमती मानव भेड़िये की एक आदमकद सोने की मूर्ति जिसे कबीले से चुराने निकले सातों धुरंधर, और बांगडा कबीले में चालाकी से जा पहुंचे और बांगडा कबीले के वार्षिक महोत्सव में जीतकर भेड़िये की मूर्ति ले उड़े, परन्तु उनका पीछा कर रही थी भेड़िया पर बलि चढ़ाई जाने वाली लड़की जीना। और फिर.........?

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मानसरोवर भाग 3 - प्रेमचंद

Mansarovar 3 by Premchand

यह प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानियों का संकलन है। उनके निधनोपरांत मानसरोवर नाम से ८ खण्डों में प्रकाशित इस संकलन में उनकी दो सौ से भी अधिक कहानियाँ शामिल है। किया गया है। 

डाउनलोड करें- मानसरोवर भाग 3

महासमर 4 (धर्म)- नरेंद्र कोहली

भीम के हाथ उठाकर अपने पीछे आते सारे लोगों को रुकने का संकेत किया। 

रुकने की आज्ञा प्रचारित होती गई और गज, अश्व तथा रथ रुकते चले गये। 

‘‘भैया ! खांडवप्रस्थ सामने दिखाई दे रहा है।’’ भीम अपने हाथी से उतरकर युधिष्ठिर के रथ के पास आ गया, ‘‘आपकी आज्ञा हो तो यहीं शिविर स्थापित कर दिया जाए। यहाँ शिविरों तथा रसोई की व्यवस्था हो और हम लोग आस-पास का क्षेत्र देख आएँ।’’

‘‘देखने को है ही क्या ?’’ युधिष्ठिर के कुछ कहने से पहले ही नकुल बोला, ‘‘चारों ओर वन-ही-वन हैं। जहाँ वन नहीं हैं, वहाँ पथरीली पहाड़ियाँ हैं, जिन पर तृण भी नहीं उगता।’’

‘‘नहीं ! ऐसी बात नहीं होनी चाहिए।’’ युधिष्ठिर की वाणी आश्वस्त थी, ‘‘कौरवों की प्राचीन राजधानी है। पुरुरवा, आयु, नहुष तथा ययाति ने यहीं से शासन किया था। यहां हमारी प्राचीन प्रासाद है। उससे लगा खांडवप्रस्थ नगर है, जहाँ हमारी प्रजा निवास करती है।’’

‘‘मुझे तो यहाँ कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा।’’ भीम ने अपनी आँखों पर हथेली की छायी करते हुए दूर तक देखने का अभिनय किया।


‘‘महाराज ! यहाँ शिविर स्थापित करने का तो आदेश दे ही दीजिए।’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘आसपास कुछ दर्शनीय है या नहीं, इससे क्या अन्तर पड़ता है।’’

‘‘हाँ !’’ अर्जुन बोला, ‘‘प्रासाद है तो 

ठीक है, नहीं तो हमें बनाना है। नगर है तो उसका पुनरुद्धार करना है, नहीं है तो बसाना है। अब रहना तो यहीं है न। महाराज धृतराष्ट्र ने हमें जो राज्य और राजधानी दी है, उसका हम अपमान तो नहीं कर सकते !’’

‘‘अर्जुन ! तुम्हारी वाणी में पितृव्य के प्रति कटुता है...।’’

‘‘मेरे मन में तो उनके प्रति घृणा है।’’ भीम ने युधुष्ठिर की बात काट दी, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता कि आपके मन में उनके व्यवहार की कोई प्रतिक्रिया होती क्यों नहीं। उन्होंने हमारे विरुद्ध कौन-सा षड्यन्त्र नहीं रचा और तब भी आप चाहते हैं कि अर्जुन की वाणी में पितृव्य के लिए कटुता तक न आए। आप मनुष्य नहीं हैं क्या ?’’


‘‘ज्येष्ठ, मनुष्य तो हैं ही मध्यम ! किन्तु धर्म राज भी हैं। वे अकारण ही धर्मराज नहीं कहलाते।’’ कृष्ण का स्वर इस समय परिहास शून्य ही नहीं पर्याप्त गंभीर भी था, ‘‘उन्होंने अपने ‘स्व’ को जीत लिया। जिस मन में सर्वभूताय प्रेमरूपी ईश्वर होना चाहिए, उसमें वे घृणा को स्थान दें... केवल इसलिए, क्योंकि कुरुराज धृतराष्ट्र के मन में अपने भ्रातुष्पुत्रों के प्रति प्रेम नहीं है। यह तो वैसा ही हुआ कि एक व्यक्ति ने अपने घर में मल बर लिया है और वह मल यदा-कदा दूसरों पर फेंकता रहता है, इसलिए आप भी अपने घर में मल भर लें, ताकि आप भी अपनी सुविधानुसार उस पर मल फेंक सकें।’’

‘‘प्रकृति के नियमों के अनुसार स्वाभाविक तो यही है।’’ भीम ने उत्तर दिया।

‘‘किसी एक का स्वभाव ही तो मानव का धर्म नहीं है। धर्म तो प्रकृति का अतिक्रमण कर आत्मस्थ होकर ही सिद्ध होगा।’’ कृष्ण ने उत्तर दिया, ‘‘साधारण मनुष्य प्रकृति के नियमों का दास होता है मध्यम ! किन्तु असाधारण व्यक्ति का सारा उपक्रम उन नियमों का स्वामी बनने के प्रयत्न में है।’’ कृष्ण ने रुककर भीम को देखा, ‘‘अब तुम महाराज की ओर से शिविर स्थापित करने की घोषणा प्रचारित कर दो और चलो हमारे साथ। मैं तुम्हें तुम्हारा वह प्रासाद और नगर दिखाता हूँ।’’

‘‘तुम इस क्षेत्र से परिचित हो माधव ?’’ अर्जुन ने कुछ आश्चर्य से पूछा।

कृष्ण के चेहरे पर सम्मोहनपूर्ण मुस्कान उभरी, ‘‘धनंजय ! यह क्षेत्र चाहे कौरवों के राज्य के अन्तर्गत माना जाता है, किन्तु यह यमुना के तट पर, गंगा-तट पर नहीं। यमुना हमारी नही है। मथुरा, वृन्दावन, गोकुल... कुछ भी तो यहाँ से दूर नहीं है।’’


वे सब लोग कृष्ण के पीछे-पीछे चल रहे थे। अर्जुन, कृष्ण के सबसे अधिक निकट था। युधिष्ठिर, भीम, तथा बलराम उनके पीछे थे और इस प्रयत्न में थे कि कुंती और द्रौपदी भी उनके साथ-साथ चल सकें। नकुल और सहदेव सबके पीछे थे और खांडवप्रस्थ संबंधित अपनी जानकारी को लेकर विवादों में उलझे हुए थे।

झाड़ियों के बीच से बनी धुँधली पगडंडियों पर कृष्ण के पग बढ़ते जा रहे थे।...यह तो स्पष्ट ही था कि मनुष्य के चरण इन मार्गों पर पड़ते रहते हैं। नहीं तो इन पगडंडियों का अस्तित्व ही न होता। किन्तु, यहाँ न पथ थे, न राजपथ। यहाँ रथों का आवागमन नहीं हो सकता था। दस-दस अश्वों की पक्तियाँ साथ-साथ नहीं चल सकती थीं, यदि पांडवों को यहाँ रहना है तो उन्हें पथ और राजपथों का निर्माण करना होगा। भवनों, हवेलियों, अट्टालिकाओं और प्रासादों का निर्माण करना होगा। जब मनुष्य रहने लगेंगे तो उनकी आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए क्या नहीं बनाना पड़ता....जब यादव कुशस्थली पहुँचे थे, तो वहाँ क्या था ? यादवों ने भी तो द्वारका जैसे वैभव शाली नगर का निर्माण किया। प्रत्येक नगर को कोई- न-कोई राजा बसाता ही है, तो पांडव अपने लिए एक नया नगर नहीं बसा सकते


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चंद्रकांता संतति भाग 3 (देवकी नंदन खत्री)

Thursday 22 October 2015

कांव कांव (Anthony#1 by Raj Comics)


एंथोनी सीरीज का पहला कॉमिक 

Anthony aur Kanw Kanw


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अंतरिक्ष - राजीव सक्सेना

Saral hindi me Antariksh ka varnan


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आरती (Kavita Sangrah)

नूरजहाँ (Noorjahan)

नूरजहाँ - एक ऐतिहासिक उपन्यास

‘‘नहीं मेहेर, उधर न जाओ।’’
दासी का वर्जन पाकर वह उदीयमान यौवना, चपला सहम उठी। बिजली सी यह विचारधारा उसके मानस में चमक उठी, ‘बकने भी दो, अपने ही भय से बुझी हुई इस दासी की लड़की को। यह जान क्या सकती है मेरे रूप के स्वप्नों को। सम्राट् का कोई निशेध नहीं है यहाँ पर। हम उनके राजभवन के बाहर हैं।’ उस सुन्दरी ने साहस एकत्र किया। एक अज्ञात आकांक्षा से खिंची हुई वह आगे बढ़ी। उसने दासी के अनुरोध की उपेक्षा कर दी। 

सम्राट् अकबर के राजप्रासाद के सिंहद्वार के बाहर द्वारपाल की एक छोटी कुटिया थी। उसमें वह अपने परिवार के साथ रहता था। दासी तेहरान से नवागत मिर्जा की लड़की थी। वह संभ्रात पर आर्थिक संकटों में घिरा हुआ साहसी मनुष्य; अपने गिरि, वनों, मरु और सरिताओं को पार करता हुआ इतनी दूर भारतवर्ष में चला आया था, मुगल सम्राटों के उस विश्व राज्य की देश-देशांतर में फैली हुई कीर्ति को सुनकर। उसकी स्त्री का वियोग हो गया था। एक पुत्र और एक कन्या उसके साथ थे। दोनों की अवस्था विवाह के योग्य थी। मिर्जा ने फिर विवाह नहीं किया। अकबर की स्त्री से उसका पीहर का संबंध है। 

निकट ही एक छोटे से सरोवर में अन्तःपुर के कुछ प्रतिपालित कपोत क्रीड़ा कर रहे हैं ! सरोवर के चारों ओर संगमर्मर के चबूतरे ओर सोपान पंक्तियाँ बनी हुई हैं। कुछ कपोत जल में स्नान कर रहे हैं और कुछ चबूतरों पर खेल रहे हैं। उस नवयुवती का मन उधर ही खिंचा हुआ था। उसने अपनी कल्पना में यह ठान लिया था कि एक दो कबूतर पकड़कर वह अवश्य ही अपने घर ले जावेगी, और उन्हें अपना सहचर बनावेगी वह अपने हृदय में कहने लगी-‘सम्राट् के हैं, तो क्या हुआ। अनगिनती यहीं पर हैं। भीतर राजभवन में और न जाने कितने होंगे। क्या कमी पड़ जायगी, यदि दो कबूतर मैं अपने साथ ले गई तो ! कौन देखता है ?’

परन्तु, देख रहा था युवराज सलीम। सिंहद्वार के परकोटे पर चढ़ा हुआ सलीम। लगभग पच्चीस-छब्बीस वर्ष की कच्ची आयु का वह राजकुमार, जिसके हृदय में उद्दाम यौवन की लालसाएँ अनेक सुप्त और अधिकांश जागती हुई थीं। वह देख रहा था, उस एक अपरिचित नारी को। प्रथम दर्शन ही में सलीम उसकी ओर बलात् आकृष्ट हो गया-‘कौन है यह ? एक-एक अंग मानो रूप की चरम आदर्श साँचे में ढला हुआ ! एक-एक चेष्टा मानो माधुरी का उद्गम स्रोत हृदय में गड़कर वहाँ गढ़ बना लेने वाला। इसकी छवि अलौकिक है। वेशभूषा से भी यह किसी संभ्रांत कुटुंब की जान पड़ती है, फिर यह हमारे राजभवन में क्यों नहीं आई ? पहले कब देखा मैंने इसे ? नहीं, आज ही, यहीं तो पहली बार है।’ सलीम परकोटे पर से उतरने लगा। 
‘‘शिशु-अवस्था में ही माता मर गई इसकी।’’ दासी ने कहा। 

‘‘भाई की आयु कितने वर्ष की है ?’’ द्वारपाल की स्त्री ने पूछा। 
‘‘होगा कोई इक्कीस-बाईस साल का, इससे चार-पाँच वर्ष बड़ा।’’
‘‘बड़ी सुन्दर, रूप और लक्षणों से युक्त है यह कन्या।’’
‘‘अभी देखा ही क्या है तुमने इसे। जिस कौशल से यह समस्त गृहस्थ का काम करती है, मैं तो देख-देखकर विस्मत मूक हो जाती हूँ।’’
‘‘गृहस्थ ही क्या हुआ ? पिता, पुत्र और लड़की।’’

‘‘काम तो हुए ही सब। खाना-पीना, स्वच्छता सजावट धरना-ढकना स्नान श्रृंगार, साधु अतिथि, सभी तो हुए ही। छोटा बालक नहीं है एक घर में। दासी केवल एक मैं हूँ, सब कुछ यह अपने हाथ से करती है। किसे देखा इसने ? किसने सिखाया इसे यह सब ?’’
‘‘विवाह योग्य तो हो गई है। कहीं चल रही है बातचीत ?’’
‘‘कहाँ से, अभी तो आए हैं। विदेश ही तो ठहरा यह इनका। जाति कुल का नहीं कोई यहाँ अपना, जान-पहचान नहीं किसी से। बड़ी कठिनता से अभी पिता को एक नौकरी मिली है टकसाल में। वृत्ति की विषम चिंता से अभी छुटकारा पाया है, अब कन्या के विवाह की चेष्टा होगी।’’
‘‘राजा के अन्तःपुर के योग्य है यह।’’

‘‘कोई संदेह नहीं इसमें, इसके पिता ईरान के राजा के प्रमुख सरदारों में से थे। दुर्भाग्यवश राजा के अनुग्रह से च्युत हो बैठे। जीविका से तो हाथ धोने ही पड़े। रातोंरात जीवन बचाने के लिए घर छोड़ प्रवास की शरण लेनी पड़ी। गर्व की गंध भी नहीं है इसमें दासी नहीं सहेली का सा व्यवहार करती है मेरे साथ। भीतर-बाहर एक सा कोई कृत्रिमता है नहीं उस व्यवहार में।’’
‘‘घर में अकेले ऊब उठती होगी बेचारी। पास-पड़ोस है कोई ?’’

‘‘नहीं, गृहस्थी के काम में से जो समय बचा लेती है, उसे पुस्तक पाठ और कला कौशल में बिताती है, इसके पिता कहते हैं, यह भाई से अवस्था में कम है, विद्या में नहीं।’’
मेहेर बड़ी सतर्कता से आगे बढ़ी। उसने अपने दोनों हाथों में दो कबूतर पकड़ लिए। 
इस समय पीछे से किसी ने कहा-‘‘दृढ़ता से पकड़ लो इन्हें, कहीं उड़ न जावें।’’

मेहेर ने लौटकर देखा। एक परम कांति और श्री-सम्पन्न नवयुवक विमुग्ध दृष्टि से उसे निहार रहा है। उसके कपोल रक्तिम हो उठे, नेत्र विनत। आबद्ध कपोतों का बाहुपाश शिथिल होने लगा। 

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121 दिमागी कसरतें

राजर्षि - रबीन्द्रनाथ टैगोर


Rajarshi (Hindi Novel) by Rabindranath Tagore

भुवनेश्वरी मंदिर का पत्थर का घाट गोमती नदी में जाकर मिल गया है। एक दिन ग्रीष्म-काल की सुबह त्रिपुरा के महाराजा गोविन्दमाणिक्य स्नान करने आए हैं, उनके भाई नक्षत्रराय भी साथ हैं। ऐसे समय एक छोटी लडकी अपने छोटे भाई को साथ लेकर उसी घाट पर आई। राजा का वस्त्र खींचते हुए पूछा, "तुम कौन हो?" राजा मुस्कराते हुए बोले, "माँ, मैं तुम्हारी संतान हूँ।" लडकी बोली, "मुझे पूजा के लिए फूल तोड़ दो ना!"

डाऊनलोड करें- राजर्षि

Wednesday 21 October 2015

स्नातक - आर के नारायण

स्नातक जिसे मिस्टर बी ए के नाम से भी अनूदित किया जाता है 

आर. के. नारायण भारत के पहले ऐसे लेखक थे जिनके अंग्रेज़ी लेखन को विश्वभर में प्रसिद्धि मिली। अपनी रचनाओं के लिए रोचक कथानक चुनने और फिर उसे शालीन हास्य में पिरोने के कारण वे न जाने कितने ही पुस्तक प्रेमियों के पसंदीदा लेखक बन गए। 

इस उपन्यास की कहानी चंद्रन नाम के एक युवक के इर्द-गिर्द घूमती है जिसने बी.ए. पास कर लिया है और जिसे अब यह तय करना है कि जीवन में आगे क्या किया जाए। एक ओर उसके सामने अच्छी नौकरी कर अपना भविष्य संवारने का सवाल है तो दूसरी ओर अपने प्रेम को पाने की तड़प। दिलचस्प विषय के साथ ही किरदारों के जीवंत चित्रण और जगह-जगह हास्य के तड़के से यह उपन्यास बहुत रोचक बन गया है।

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मनुष्य (Manushya) by Bhati



Bhati ki Kahaniyon ka Sangrah

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Monday 19 October 2015

अतिक्रूर (Bhokal#5 by Raj Comics)


भोकाल सीरीज़ का पांचवा कॉमिक 

Bhokal aur Atikroor 
भुजंग देश के भोजपुर गाँव में फैली महामारी जिसकी वजह से गाँव छोड़कर नगर आना पड़ा गाँव के शमशान में काम करने वाले चांडाल कपालफोड़ और उसके पुत्र अतिक्रूर को. परन्तु नगर में आकर भी कम नहीं हुयी उनकी मुसीबतें. कपालफोड़ को एक शैतान गजोख ने धोखे से राजा न्यायप्रिय की हत्या के जुर्म में पहुंचवा दिया कारागार में. अतिक्रूर को मिला सहारा शमशान भूमियों के प्रभु मशानराज और गुरु कालकोपडा का जिन्होंने अतिक्रूर को दी असीम ताकत. अब अतिक्रूर को शैतान गजोख को ख़त्म कर छुड़ाना था अपने इत कपालफोड़ को. और गजोख को ख़त्म करने के लिए चाहिए था अमोद्य शस्त्र दंताक जिसकी तलाश में आतिक्रूर आ पहुंचा था तिलिस्मी ओलम्पाक. और फिर............?

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शूतान (Bhokal#4 by Raj Comics)


भोकाल सीरीज़ का चौथा कॉमिक 

Bhokal aur Shutan
हिप्ना गृह के प्रोका देश का नेक राजा टोस्कर परन्तु उसका साला कास्कोर बहुत नीच और बदमाश उसने अपने मित्र राक्षस डाकोर की सहायता से टोस्कर को दे दिया ज़हर। टोस्कर को बचाने के लिए जब राजवैद्य मेसमर को बुलवाया गया तो कास्कोर और डाकोर ने उसको भी घायल कर भेज दिया मोहनिद्रा अवस्था में। और उसके बेटों मीतान और जीतान की कर दी हत्या। बच गया तो सिर्फ छोटा बेटा शूतान जिसने डाकोर से बदला लेने के इरादे से शरण ली अपने पिता के गुरु पासेगुर के पास जिन्होंने शूतान को सिखाई अनोखी सम्मोहन कला। सम्मोहन विद्या सिखने के बाद शूतान को पता चला की डाकोर उसके पिता के शरीर को लेकर जा चुका है तिलिस्मी ओलम्पाक में। इस तरह डाकोर से बदला लेने की इच्छा लिए सम्मोहन सम्राट शूतान भी जा पहुंचा तिलिस्मी ओलम्पाक। और फिर..........?

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भोकाल (Bhokal#3 by Raj Comics)


भोकाल सीरीज़ का तीसरा कॉमिक 

Bhokal
परीलोक जहाँ हमला किया राक्षसराज बोझ और भरकम ने और मार-काट मचा उठा ले गए परीलोक की सभी परियों को। परीलोक न नन्हा राजकुमार आलोप किसी तरह बच गया अकेला और अपनी माँ परीरानी ओसिका को ढूंढ़ता हुआ जा पहुंचा परीलोक के महागुरु भोकाल के पास जो स्वयं भी राक्षसों के हमले से घायल हो गए थे। महागुरु भोकाल ने दी राजकुमार आलोप को अपनी प्रलयंकारी तलवार और ढाल और साथ में दी अपनी प्रलयंकारी शक्ति की जब भी वो पुकारेगा भोकाल का नाम तो मिल जाएगी उसको प्रलयंकारी शक्ति। और इस भोकाल शक्ति को लेकर आलोप जा पहुंचा था तिलिस्मी ओलम्पाक अपनी माँ की तलाश में। और फिर............?

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Sunday 18 October 2015

तिलिस्मी ओलंपाक (Bhokal#2 by Raj Comics)


भोकाल सीरीज़ का दूसरा कॉमिक

Bhokal aur Tilismi Olampak
महाबली फूचांग जिसने खौफनाक खेल रचकर ढूंढे 4 महारथी भोकाल, शूतान, अतिक्रूर और तुरीन और इन चारों को भेज दिया तिलिस्मी ओलम्पाक की खोज में। चारों महारथी आ पहुंचे अनजान और अद्भुत जगह जहाँ कदम-कदम पर करना पड़ रहा था उनको खतरों का सामना। तिलिस्मी ओलम्पाक की खोज में इन चारों की बहादुरी का लुत्फ़ उठा रहे थे पृथ्वी के सभी राजा-महाराजा। विकासनगर की नन्ही राजकुमारी भी तिलिस्मी ओलम्पाक में जाने की जिद लिए जा पहुंची फूचांग के पास जहाँ उसको पता चल गया फूचांग के षड्यंत्र का परन्तु फूचांग ने उस मासूम को भी भेज दिया खतरों के बीच तिलिस्मी ओलम्पाक में। और फिर........?

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खौफनाक खेल (Bhokal#1 by Raj Comics)

भोकाल सीरीज़ का पहला कॉमिक 

Bhokal aur Khaufnak Khel 
ओसाक ग्रह का बागी फुचांग जिसने महाराज गर्बोच की कर दी हत्या। महारानी रसिया राजकुमारी सोफिया को लेकर भाग निकली। बड़ी होने पर जब सोफिया जब फुचांग से बदला लेने की इच्छा लिए महर्षि गाजोबाजो के पास मदद के लिए गयी तो गाजोबाजो ने धोखे से उसको फुचांग के हवाले कर दिया। फुचांग को सोफिया की ज़रूरत थी क्योंकि उसकी मदद से ही वो तोड़ सकता था तिलिस्मी ओल्म्पाक, अब उसको थी ऐसे महावीरों की तलाश जिसको वो भेज सके तिलिस्मी ओल्म्पाक और इसलिए फुचांग ने विकासनगर के राजा विकास मोहन की मदद से आयोजन किया खौफनाक खेल का। और फिर.............

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कर्म (Karm) महासमर भाग 3- नरेंद्र कोहली


Mahasama part 3 (Karm) by Narendra Kohli

नरेन्द्र कोहली का नया उपन्यास है ‘महासमर’। घटनाएँ तथा पात्र महाभारत से संबद्ध हैं, किन्तु यह कृति का एक उपन्यास है-आज के एक लेखक का मौलिक सृजन।

कर्म
कुंती और पांडवों के प्रबल आग्रह के बाद भी कृष्ण और उनके साथी, युधिष्ठिर के युवराज्याभिषेक के पश्चात् हस्तिनापुर में नहीं रुके। कृष्ण ने केवल इतना ही बताया कि उन लोगों का मथुरा पहुँचना आवश्यक था। भीम की बहुत इच्छा थी कि बलराम अभी कुछ दिन और रुकते तो भीम का गदा-युद्ध और मल्ल-युद्ध का अभ्यास और आगे बढ़ता। बलराम को इसमें कोई आपत्ति भी नहीं थी। वे मथुरा लौटने के लिए बहुत आतुर भी नहीं दिखते थे; फिर भी कृष्ण के बिना, वे हस्तिनापुर में रुक नहीं सकते थे।

कृष्ण ने चाहे उन्हें कुछ नहीं बताया था, किंतु यादवों के मथुरा लौट जाने के पश्चात् युधिष्ठिर को भी चारों ओर से अनेक समाचार मिलने लगे थे।...जरासंध का सैनिक अभियान अब गुप्त नहीं रह गया था। विभिन्न राजसभाओं से राजदूत एक-दूसरे के पास जा रहे थे। पांचालों और यादवों में कोई प्रत्यक्ष संधि तो नहीं हुई थी; किंतु पांचालों ने जरासंध के सैनिक अभियानों में सम्मिलित होने की कोई तत्परता नहीं दिखायी थी। यादवों को वे अपने मित्र ही लग रहे थे। जरासंध ने हस्तिनापुर की राजसभा में कोई भी राजदूत नहीं भेजा था; किंतु यह समाचार प्रायः सबको ही ज्ञात हो गया था कि जरासंध ने काल यवन के साथ किसी प्रकार का कोई समझौता कर लिया था; और संभवतः वे दोनों एक ही समय में विभिन्न दिशाओं से मथुरा पर आक्रमण करने वाले थे। निश्चित रूप से यादवों के लिए यह विकट संकट की घड़ी थी।
‘‘हमें कृष्ण की सहायता के लिए जाना चाहिए।’’ अर्जुन ने कहा।

‘‘जाना चाहिए का क्या अर्थ! हमें चल ही पड़ना चाहिए।’’ भीम ने उग्र भाव से समर्थन किया, ‘‘मथुरा में वे लोग उन राक्षसों की नृशंस सेनाओं से जूझ रहे हों, और हम यहाँ शांति से बैठे रहें !’’
‘‘ठीक कहते हो तुम लोग।’’ युधिष्ठिर तो सहमत था; किंतु वह मुक्त भाव से कुछ कह नहीं पा रहा था।
‘‘क्या बात है पुत्र !’’ कुंती ने युधिष्ठिर के मनोभाव को कुछ-कुछ समझते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारे मन में उत्साह नहीं है।’’

‘‘भैया के मन में युद्ध के लिए कभी भी कोई उत्साह नहीं होता।’’ नकुल ने धीरे से कहा, ‘‘वे सदा शांति ही चाहते हैं।’’
‘‘तो यह युद्ध भी तो शांति स्थापित करने के लिए ही है।’’ भीम ने उत्तर दिया, ‘‘हम इन दुष्टों का विरोध नहीं करेंगे, तो वे लोग संसार में कभी शांति रहने ही नहीं देंगे।’’

‘‘पितृव्य का विचार है कि अब, जब कि जरासंध मथुरा की ओर चल पड़ा है, और कांपिल्य को उसका भय नहीं रह गया है—पांचाल अपने अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए, हस्तिनापुर पर आक्रमण कर सकते हैं इसलिए भीम और अर्जुन को हस्तिनापुर छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहिए।’’

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