Sunday 1 November 2015

जिन खोजा तिन पाइया

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रतिष्ठित लेखक अयोध्याप्रसाद गोयलीय के इस अप्रतिम कथा-संग्रह, ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ को यदि हिन्दी का हितोपदेश कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। वहीं अनुभव, वहीं ज्ञान, वही विवेक है इसमें।


अनुभवी लेखक गोयलीय जी ने जीवन और जगत में जो देखा, सुना, पढ़ा और समझा, प्रस्तुत कृति में सरल सुबोध शैली में सँजोकर रख दिया हैं। इसमें जीवन-निर्माण एवं उत्साह, प्रेरणा और शक्ति प्रदान करने वाली 102 लघु-कथाएँ हैं। इनका स्वरूप लघु है पर ज्ञान-गुम्फन की दृष्टि से सागर जैसी प्रौढ़ता, विशालता तथा विस्तार है। इनमें बहुत-सी कहानियाँ मनुष्य के अन्तर की उस ऊँचाई को पाठक के सामने पेश करती हैं जो उसे सचमुच मनुष्य बनाती हैं। हिन्दी के सहृदय पाठक को समर्पित है भारतीय ज्ञानपीठ की एक सुन्दर कृति, नयी साज-सज्जा के साथ।


आमुख

गोयलीयजी-की क़लम ने अपनी जादूगरी से हिन्दी-पाठकों को मोह रखा है। ‘शेर-ओ-शायरी’ और ‘शेर-ओ-सुख़न’ उनकी ऐसी कृतियाँ हैं जो साहित्य में सदा स्मरणीय रहेंगी। दो वर्ष पूर्व जब उनकी पुस्तक ‘गहरे पानी पैठ’ प्रकाशित हुई तो साधारण पाठक और असाधारण आलोचक- सभी उसकी लोकप्रिय विषय-वस्तु और रोचक शैली से प्रभावित हुए। चुटीली कहानियाँ, अद्भुत घटनाएँ, मज़ेदार चुटकुले, दिलचस्प लतीफ़े, गहरे अनुभव, पढ़े-सुने क़िस्से- सभी कुछ इस ढंग से लिखे गये हैं कि पाठकों का ज्ञान, प्रेरणा और मनोरंजन एक जगह एक साथ मिल जाता है। 

गोयलीयजी की यह नयी कृति ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ भी उतनी ही ज्ञानवर्द्धक, प्रेरक और रोचक है, जितनी ‘गहरे पानी पैठ’; बल्कि इसमें शैली का निखार कुछ अधिक ही है। इसे बालक तो चाव से पढ़ ही सकते हैं, युवकों को भी इससे प्रेरणा और दृष्टि मिलेगी। बुर्ज़ुर्गों को इसमें उनके अपने अनुभवों के प्रत्यावर्तन और प्रतिध्वनि की प्रतीति होगी। चूँकि ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ में केवल वहीं है जो लेखक ने स्वयं देखा है, दूसरों से सुना है, पुस्तकों में पढ़ा है या बुद्धि से समझा है, इसलिए इसमें बहुत कुछ ऐसा होना चाहिए जो आपने भी देखा-सुना या पढ़ा-गुना हो। पर देखने-देखने में, सुनने-सुनने में और पढ़ने-पढ़ने में अन्तर है। अपने-अपने दृष्टिकोण से वस्तु को समझाने में तो अन्तर होना ही हुआ।

हम-आप भी रात-दिन में सफ़र करते हैं, पर हममें से कितने ऐसे हैं, जिन्हें सन्तोषी थानेदार, त्यागी भिखारी, विनयशील सन्यासी, पैसे को हाथ न लगाने वाला पानीपाँड़े और दो दिन भूखे रहकर भी कर्ज़ के पैसों को बिना बरते लौटानेवाला शानदार चपरासी सहयात्री के रूप में मिलते हैं। ऐसे व्यक्ति जो अभावों में रहकर मुस्कुराते हैं और दूसरों की अयाचित ‘कृपा’ को भी अपनी मुफ़लिसी की शान से ‘याचना-सा’ बना देते हैं- जिनको कुछ दे सकने में दाता अपने को उपकृत समझे ! यह बात नहीं कि गोयलीयजी को गिरहकट या उजलेपोश बदमाश नहीं मिलते-बहुत मिलते हैं। उनसे उचक्कों और गिरहकटों के क़िस्से सुनिए कि कैसे दिन-दहाड़े उनके देखते-देखते एक उचक्का यह कहकर बिस्तर-ट्रंक ले उड़ा कि ‘भाई साहब, गाड़ी आने में देर है; इज़ाजत दें तो बीवी-बच्चों को आपके ट्रंक-बिस्तरे पर बिठा दूँ।’ किस तरह एक ‘सज्जन’ बातों-बातों में अपना आगरे का पता बता चुकने के बाद पार्सल की रसीद भरने के लिए पार्कर पेन माँगकर सामने लिखते-लिखते चम्पत हो गये और उनकी दो रुपये की ख़ाली पेटी लिये-लिये गोयलीयजी क़ुली बने घूमते रहे पर किसी रेलवे अधिकारी ने टूटी ख़ाली पेटी को सँभालकर रखने की कृपा न दिखायी। इलाहाबाद के एक होटल में हम लोग ठहरे तो होटल के मैनेजर गोयलीयजी के ‘दोस्त’ बन गये। एक रोज़ शाम तक मैनेजर न लौटे तो बैरा ने शुबा डाल दिया कि कहीं मैनेजर किसी एक्सीडेंट की चपेट में न आ गये हों। अब गोयलीयजी जैसे कि तैसे उनकी तलाश में निकल पड़े। बहुत रात गये लौटने पर पता चला कि वास्तव में ‘एक्सीडेंट’ यह हुआ है कि गोयलयजी के पर्स, घड़ी और पेन मिलकर मैनेजर को भगा ले गये- क्योंकि पुलिस की ‘कोशिशों’ के बावजूद चारों में से किसी का पता न चला। दौड़-धूप में और पुलिस के चाय-पानी में सिर्फ़ पचास रुपये खर्च पड़े होंगे- सिर्फ़ पचास रुपये में ही ख़ूब मोटा फ़ाइल गोयलयजी की ख़ातिर पुलिस ने बना दिया था। आप मुस्कराएँगे और कहेंगे कि दो-चार क़िस्से तो इस तरह के हमारे साथ भी गुज़रे हैं। और सौ-पचास क़िस्से आपको अपने दोस्तों के भी याद आ जाएँगे। ....फिर आप चौंकेंगे और सोचेंगे कि दुनियाँ में घटनाएँ तो ज़्यादातर दूसरे ही प्रकार की घटती हैं, फिर गोयलयजी को इस तरह के थानेदार, भिक्षुक, पानीपाँड़े और चपरासी कहाँ से मिल जाते हैं, और कैसे मिल जाती है थर्ड क्लास में फूल-सी नाज़नी जो माथे पर हाथ रखकर सोयी हुई होती है तो उपमा सूझती है :


दमे-ख़ाब है दस्ते-नाज़ुक जबीं पर

किरन चाँद की गोद में सो रही है

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