Vayam Rakshamah (Acharya Chatursen)
‘वैशाली की नगरवधू’ लिखकर मैंने हिन्दी उपन्यासों के संबंध में एक नया मोड़ उपस्थित किया था कि अब हमारे उपन्यास केवल मनोरंजन तथा चरित्र-चित्रण-भर की सामग्री नहीं रह जाएँगे। अब यह मेरा उपन्यास है ‘वयं रक्षाम:’ इस दशा में अगला कदम है।
इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्य-दानव, आर्य-अनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृत-पुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवन-भर के अध्ययन का सार है।...
-आचार्य चतुरसेन
सकलकलोद्वासित-पक्षद्वय-सकलोपधा-विशुद्ध-मखशतपूत-प्रसन्नमूर्ति-स्थिरोन्नत-होमकरोज्ज्वल-
ज्योतिज्र्योतिर्मुख-स्वाधीनोदारसार-स्थगितनृपराजन्य-शतशतपरिलुण्ठन मौलिमाणिक्यरोचिचरण-प्रियवाचा-मायतन-साधुचरितनिकेतन-लोकाश्रयमार्गतरु-भारत-गणपतिभौमब्रह्ममहाराजाभिध-
श्रीराजेन्द्रप्रसादाय ह्यजातशत्रवे अद्य गणतन्त्राख्ये पुण्याहे भौमे माघमासे सिते दले तृतीयायां वैक्रमीये तलाधरेश्वरशून्यनेत्राब्दे निवेदयामि साञ्जलि:स्वीयं साहित्य-कृति वयं ‘रक्षाम:’ इति सामोदमहं चतुरसेन:।
मेरे हृदय और मस्तिष्क में भावों और विचारों की जो आधी शताब्दी की अर्जित प्रज्ञा-पूंजी थी, उन सबको मैंने ‘वयं रक्षाम:’ में झोंक दिया है। अब मेरे पास कुछ नहीं है। लुटा-पिटा-सा, ठगा-सा श्रान्त-कलान्त बैठा हूं। चाहती हूं-अब विश्राम मिले। चिर न सही, अचिर ही। परन्तु यह हवा में उड़ने का युग है। मेरे पिताश्री ने बैलगाड़ी में जीवन-यात्रा की थी, मेरा शैशव इक्का-टांगा-घोड़ों पर लुढ़कता तथा यौवन मोटर पर दौड़ता रहा। अब मोटर और वायुयान को अतिक्रान्त कर आठ सहस्त्र मील प्रति घंटा की चाल वाले राकेट पर पृथ्वी से पांच सौ मील की ऊंचाई पर मेरा वार्धक्य उड़ा चला जा रहा है। विश्राम मिले तो कैसे ? इस युग का तो विश्राम से आचू़ड़ वैर है। बहुत घोड़ो को, गधों को, बैलों को बोझा ढोते-ढोते बीच राह मरते देखा है। इस साहित्यकार के ज्ञानयज्ञ की पूर्णाहुति भी किसी दिन कहीं ऐसे ही हो जाएगी। तभी उसे अपने तप का सम्पूर्ण पुण्य मिलेगा।
गत ग्यारह महीनों में दो-तीन घण्टों में अधिक नहीं सो पाया। सम्भवत: नेत्र भी इस ग्रन्थ की भेंट हो चुके हैं। शरीर मुर्झा गया है, पर हृदय आनन्द के रस में सराबोर है। यह अभी मेरा पैसठवां ही तो बसन्त है। फिर रावण जगदीश्वर मर गया तो क्या ? उसका यौवन, तेज, दर्प, दुस्साहस, भोग और ऐश्वर्य, जो मैं निरन्तर इन ग्यारह मासों में रात-दिन देखता हूं, उसके प्रभाव से कुछ-कुछ शीतल होते हुए रक्तबिन्दु अभी भी नृत्य कर उठते हैं। गर्म राख की भांति अभी भी उनमें गर्मी है। आग न सही, गर्म राख तो है।
जय दीप जी
ReplyDeleteवयं रक्षामः के लिए आभार।
बैशाली की नगरवधू ,सोना और खून भी उपलब्ध कराये।आपने पुनः पृष्ठ के मध्य में प्रचार किया जो आपके वादे के अनुरूप नहीं है।
बहुत बहुत धन्यवाद जयदीप भाई,इस किताब के लिए,हो सके तो बाकि के दुर्लभ किताब भी उपलब्ध करवाए,,,,,जैसे की बैशाली की नगरवधू,,,,और हो सके तो देवकी नंदन खत्री के उपन्यास वीरेंदर वीर,और रोहतास मठ भी उपलब्ध करवाइए, ये दोनों किताब भी दुर्लभ हैं,इसके रीप्रिंट भी बंद हो चुके हैं,,,,,,,
ReplyDeleteप्रिंस जी
ReplyDeleteदेवकी नंदन खत्री का उपन्यास रोहतास मठ http://pdfbooks.ourhindi.com/2015/06/rohatasmath-hindi-book-pdf-download.html?m=1 पर उपलब्ध हैं.आप की जानकारी में हिन्दी साहित्य की पुस्तकें जिस बेबसाइट पर उपलब्ध हों बतायें.
अजय जी, धन्यवाद आपका, परन्तु रोहतास मठ दो खंडो में है और इसका प्रथम खंड मेरे पास भी है,इसका दूसरा खंड अनुपलब्ध है अभी तक,आपने जिस साईट क लिए बोला है वहां भी प्रथम खंड है,हिंदी साहित्य की बहुत साड़ी पुस्तके आपको www.apnihindi.com, और http://hindilibrary.blogspot.in/2012/06/abhyudaya-book-1-by-narendra-kohli_15.html,,,, यंहा पर भी मिल जाएँगी,,,,
ReplyDeleteबन्धु
ReplyDeleteकहाँ खो गये ?
But hi acha karj hai sir.....
ReplyDeletedear sir,
ReplyDelete"skip Ad " is not responding.
धन्यवाद । चतुरसेन जी की बैशाली की नगरबधु हाे सके ताे उपलब्ध करवाए ।
ReplyDeleteबन्धु
ReplyDelete। कहाँ हो। उत्तर दे।
Sir i tried many times. But i am unable to download this book vayN rakshamah. Please get available this book again.
ReplyDeleteThanks and regards
Yugal gupta
9887062553
वयं रक्षामः आपने उपलब्ध कराया, इसके लिए हार्दिक अभिनन्दन| कृपया सोमनाथ भी उपलब्ध कराएं | धन्यवाद|
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