Monday 21 September 2015

अभ्युदय (Abhyudaya) - नरेंद्र कोहली




‘अभ्युदय’ रामकथा पर आधारित हिन्दी का पहला और महत्वपूर्ण उपन्यास है। ‘दीक्षा’, ‘अवसर’, ‘संघर्ष की ओर’ तथा ‘युद्ध’ अनेक सजिल्द, अजिल्द तथा पॉकेटबुक संस्करण प्रकाशित होकर अपनी महत्ता एवं लोकप्रियता प्रमाणित कर चुके हैं। महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में इसका धारावाहिक प्रकाशन हुआ है। उड़िया, कन्नड़, मलयालम, नेपाली, मराठी तथा अंग्रेजी से इसके विभिन्न खण्डों के अनुवाद प्रकाशित होकर प्रशंसा पा चुके हैं। इसके विभिन्न प्रसंगो के नाट्य रूपान्तर मंच पर अपनी क्षमता प्रदर्शित कर चुके हैं तथा परम्परागत रामलीला मण्डलियाँ इसकी ओर से आकृष्ट हो रही हैं। यह प्राचीनता तथा नवीनता का अद्भुत संगम है। इसे पढ़कर आप अनुभव करेंगे कि आप पहली बार ऐसी रामकथा पढ़ रहे हैं, जो सामयिक, लौकिक, तर्कसंगत तथा प्रासंगिक है। यह किसी अपरिचित और अद्भुत देश तथा काल की कथा नहीं है। यह इसी लोक और काल की, आपके जीवन से सम्बन्धित समस्याओं पर केन्द्रित एक ऐसी कथा है, जो सर्वकालिक और शाश्वत है और प्रत्येक युग के व्यक्ति का इसके साथ पूर्ण तादाम्य होता है। ‘अभ्युदय’ प्रख्यात कथा पर आधृत अवश्य है ; किन्तु यह सर्वथा मौलिक उपन्यास है, जिसमें न कुछ अलौकिक है, न अतिप्राकृतिक। यह आपके जीवन और समाज का दर्पण है। पिछले पच्चीस वर्षों में इस कृति ने भारतीय साहित्य में अपना जो स्थान बनाया है, हमें पूर्ण विश्वास है कि वह क्रमशः स्फीत होता जायगा, और बहुत शीघ्र ही ‘अभ्युदय’ कालजयी क्लासिक के रूप में अपना वास्तविक महत्व तथा गौरव प्राप्त कर लेगा।

दीक्षा
(1)

समाचार सुना और विश्वामित्र एकदम क्षुब्ध हो उठे। उनकी आँखें, ललाट-क्षोभ में लाल हो गए। क्षणभर समाचार लाने वाले शिष्य पुनर्वसु को बेध्याने घूरते रहे; और सहसा उनके नेत्र झुककर पृथ्वी पर टिक गए। अस्फुट-से स्वर में उन्होंने कहा, ‘‘असह्य!’’

शब्द के अच्चारण के साथ ही उनका शरीर सक्रिय हो उठा। झटके से उठकर वे खड़े हो गए, ‘‘मार्ग दिखाओ, वत्स !’’
पुरर्वसु पहले ही स्तंभित था, गुरु की प्रतिक्रिया देखकर जड़ हो चुका था; सहसा यह आज्ञा सुनकर जैसे जाग पड़ा और अटपटी-सी चाल चलता हुआ, गुरु के आगे-आगे कुटिया से बाहर निकल गया।

विश्वामित्र झपटते हुए-से पुनर्वसु के पीछे चल पड़े।
मार्ग में जहाँ-तहाँ आश्रमवासियों के त्रस्त चेहरे देखकर विश्वामित्र का उद्वेग बढ़ता गया। आश्रमवासी गुरु को आते देख, मार्ग से एक ओर हट, नतमस्तक खड़े हो जाते थे। और उनका इस प्रकार निरीह-कतार होना, गुरु को और अधिक पीड़ित कर जाता था: ‘ये सब लोग मेरे आश्रित हैं। ये मुझ पर विश्वास कर यहाँ आए हैं। इनकी व्यवस्था और रक्षा मेरा कर्त्तव्य है। और मैंने इन सब लोगों को इतना असुरक्षित रख छोड़ा है। इनकी सुरक्षा का प्रबंध...’
आश्रमवासियों की भीड़ में दरार पैदा हो गई। उस मार्ग से प्रविष्ट हो, विश्वामित्र वृत्त के केंद्र के पास पहुँच गए। उनके उस कठोर शुष्क चेहरे पर भी दया, करुणा, पीड़ा, उद्वेग, क्षोभ, क्रोध, विवशता जैसे अनेक भाव पुँजीभूत हो, कुंडली मारकर बैठ गए थे।

उनके पैरों के पास, भूमि पर नक्षत्र का मृत शरीर चित पड़ा था। इस समय यह पहचानना कठिन था कि शरीर किसका है। शरीर के विभिन्न मांसल अंगों की त्वचा फाड़कर मांस नोच लिया गया था, जैसे रजाई फाड़कर गूदड़ नोच लिया गया हो। कहीं केवल घायल त्वचा थी, कहीं त्वचा के भीतर से नंगा मांस झाँक रहा था, जिस पर रक्त जमकर ठण्डा और काला हो चुका था; और कहीं-कहीं मांस इतना अधिक नोच लिया गया था कि मांस के मध्य की हड्डी की श्वेतता मांस की ललाई के भीतर से भासित हो रही थी। शरीर की विभिन्न मांसपेशियाँ टूटी हुई रस्सियों के समान जहाँ-तहाँ उलझी हुई थीं। चेहरा जगह-जगह से इतना नोचा-खसोटा गया था कि कोई भी अंग पहचान पाना कठिन था।

विश्वामित्र का मन हुआ कि वे अपनी आँखें फेर लें। पर आँखें थीं कि नक्षत्र के क्षत-विक्षत चेहरे से चिपक गई थीं और नक्षत्र की भयविदीर्ण मृत पुतलियाँ कहीं उनके मन में जलती लौह शलाकाऔं के समान चुभ गई थीं, अब वे न अपनी आँखें फेर सकेंगे और न उन्हें मूँद ही सकेंगे। बहुत दिनों तक उन्होंने अपनी आँखें मूँदे रखीं थीं-अब वे और अधिक उपेक्षा नहीं कर सकते। कोई-न-कोई व्यवस्था उन्हें करनी पड़ेगी...
‘‘यह कैसे हुआ, वत्स ?’’ उन्होंने पुनर्वसु से पूछा।
‘‘गुरुदेव ! पूरी सूचना तो सुकंठ से ही मिल सकेगी। सुकंठ नक्षत्र के साथ था।’’
‘‘मुझे सुकंठ के पास ले चलो।’’

जाने से पहले विश्वामित्र आश्रमवासियों की भीड़ की ओर उन्मुख हुए, ‘‘व्याकुल मत होओ, तपस्वीगण। राक्षसों को उचित उचित दण्ड देने की व्यवस्था मैं शीघ्र करूँगा। नक्षत्र के शब का उचित प्रबंध कर मुझे सूचना दो।’’
वे पुनर्वसु के पीछे चले जा रहे थे, ‘‘जब कभी भी मैं किसी नए प्रयोग के लिए यज्ञ आरंभ करता हूं, ये राक्षस मेरे आश्रम के साथ इसी प्रकार


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