Sunday 20 September 2015

सरस्वतीचंद्र (Saraswati Chandra)



‘सरस्वतीचन्द्र’ गुजरात का गरिमामय ग्रन्थ-रत्न है। इसमें सन् 1885 के आसपास के संक्रान्तिकाल का - विशेषरूप से गुजरात और सामान्यतः समग्र भारत का - विस्तृत, तत्त्वस्पर्शी और आर्षदृष्टि-युक्त चित्रण है। भारत के छोटे-बड़े राज्य, अंग्रेजी शासन और उसका देश पर छाया हुआ प्रभुत्व, अज्ञान और दारिद्रय इन दो चक्की के पाटों के बीच पिसती, सत्ताधीशों से शोषित और जिसे राजा की सत्ता को पूज्य समझना चाहिए ऐसी ‘कामधेनु’ के समान पराधीन प्रजा, अपना परिवर्तित होता हुआ पारिवारिक जीवन, खंडित जीवन को सुवासित करने वाले स्नेह की सुगंध, अंग्रेजी शिक्षा का आरंभ और भारत के युवक वर्ग पर पड़ने वाला उसका अनुकूल-प्रतिकूल प्रभाव, संधि-काल में बदलते हुए जीवन-मूल्य, न केवल समाज के योगक्षेम वरन् इसके वास्तविक एवं पूर्ण विकास के लिए स्त्री-जाति के उत्थान की आवश्यकता, धर्म के नाम पर पाखण्ड और अन्धविश्वास से पूर्ण निर्जीव और निष्क्रिय सामाजिक जीवन, नूतन विज्ञान और उद्योग से समृद्ध पाश्चात्य संस्कृति का प्रादुर्भाव और भारत में व्याप्त होता हुआ उसका प्रभाव, लोक-कल्याण की यज्ञ-भावना और उसमें कुमुद, सरस्वतीचन्द्र तथा कुसुम की बलि, देश के सर्वांगीण उन्नति के लिए कल्याण-ग्राम की योजना, लोक-कल्याण के पोषण में ही साधुओं और उनके संन्यास की सार्थकता - ये और ऐसी ही अनेक धाराएँ इस कृति में चक्र की नाभि से निकलती अराओं की भांति दिखाई देंगी। लेकिन इन सबमें लेखक का केन्द्रीय भाव तो भारत के पुनरुत्थान और जन-कल्याण का ही है। सरस्वतीचन्द्र की अस्थिरचित्तता और वैराग्य-भावना के मूल में भी लेखक का लोक-चित्रण तथा लोक-कल्याण का दृष्टिकोण ही निहित है।

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