Sunday 20 September 2015

देवकी का बेटा (Devki ka Beta)- रांगेय राघव




हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार रांगेय राघव ने विशिष्ट काव्यों कलाकारों और महापुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यासों की एक माला लिखकर साहित्य की एक बड़ी आवश्यकता को पूर्ण किया है। प्रस्तुत उपन्यास ‘देवकी का बेटा’ में उन्होंने जननायक श्रीकृष्ण का चरित्र ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्तुत किया है।

इसमें श्रीकृष्ण के जीवन के साथ संबद्ध अनेकानेक अलौकिक घटनाओं का लेखक ने वैज्ञानिक कसौटी पर रख कर उन सबका संगत अर्थ दिया है और कृष्ण को एक महान पुरुषार्थी, त्यागी, कर्मठ और जीवन को एक विशिष्ट मोड़ देने वाले एक सामान्य मनुष्य के रूप में चित्रित किया है। ‘देवकी का बेटा’ में समय के धुंधलके और कुहासे से ढके एक महान ऐतिहासिक पुरुष के चरित्र को बहुत ही स्पष्ट, यथार्थसंगत और प्रामाणिक रूप में चित्रित किया गया है।

श्रीकृष्ण के जीवन पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास—ऐतिहासिक अध्ययन और यथार्थ सम्मत दृष्टि से महान पुरुषार्थी, योगेश्वर श्रीकृष्ण का सामान्य मनुष्य के रूप में चित्रण—यशस्वी उपन्यासकार रांगेय राघव की कलम से


गोधूली में लौटती हुई गायों के गले में लटकाई हुई घंटियाँ बजने लगीं। गोकुल के पक्के और कच्चे घरों पर अगरुधूम जलने लगा था और कहीं-कहीं से मंत्रोच्चारण की ध्वनि आ रही थी। ब्राह्मण संध्योपासना की क्रिया में लगे हुए थे। गोपों के घरों में गायों की सेवा और दुहने का काम हो रहा था। स्त्रियों के भारी चूड़े आपस में टकराकर शब्द कर उठते थे।

उस समय गले में वैजयंती माला डाले गायों के झुण्ड के पीछे कृष्ण और चित्रगंधा चले आ रहे थे। कृष्ण मदिर-मदिर बाँसुरी बजा रहा था। दूर कहीं बजते हुए घण्टों के स्वर पर उतरता हुआ अंधकार धीरे-धीरे पथ पर लोटने लगा था। कृष्ण के किशोर अंगों पर उभरी हुई सुंदर मांसपेशियाँ इस समय उसे अवाक् पौरुष की विन्रमता दे रही थीं। चित्रगंधा चुपचाप संग-संग चली आ रही थी।


द्वार पर पहुँचते ही माता मदिरा ने कहा, ‘‘पुत्र, तू कहाँ रहा ! तुझे बलराम ढूँढ़ रहा था ?’’
भद्रवाहा पास ही खड़ी थी। उसने मुस्कराकर चित्रगंधा की ओर देखा और कहा, ‘‘और तू कहाँ थी ?’’
चित्रगंधा ने अनजाने ही उत्तर दिया, ‘‘मैं तो इसके साथ ही थी।’’ उसने कृष्ण की ओर इंगित किया।
भद्रवाहा की बात को मदिरा के मातृत्व की मर्यादा ने आगे बढ़ने से रोक दिया। उसने कहा, ‘‘चलो-चलो, हाथ-मुँह धो लो ! तुम लोग दिन-भर गायों के पीछे ! सहज नहीं है ! थक नहीं जाते ?’’
उसने वाक्य एक भी पूरा नहीं किया।
‘‘थूकूँगा क्यों मातर !’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘मुझे तो इससे बढ़कर कुछ भी नहीं लगता। यहाँ ग्राम में वह आनंद कहाँ जो वहाँ वन के सघन वृक्षों की सोती हुई छाया में है।’’
मदिरा समझी-ना-समझी सी कनखियों से देख उठी। भद्रवाहा पूर्ण दृष्टि से चित्रगंधा को घूर रही थी। कृष्ण कहता जा रहा था, ‘‘वहाँ भ्रमर गुंजारते हैं। कहीं कदंब फूलते हैं। कहीं वर्षा का प्रखर धारा से बहनेवाला जल लबालब भर गया है। आज तो मैं और ये चित्रगंधा बड़ी देर तक उस पानी में तैरते रहे।’’

‘‘सच, बड़ा आनंद आया !’’ चित्रगंधा ने कहा।
‘‘तू चुप रह !’’ मदिरा ने कहा, ‘‘दिन-भर घूमती है, घर का कुछ काम भी करती है ?’’
चित्रगंधा का मुँह उतर गया।
भद्रवाहा ने पूछा, ‘‘तो तू दिन-भर तैरता रहा ?’’
उसकी प्रश्नों-भरी आँखों में और भी कुछ था। वह अपने अस्तित्व के होते हुए भी स्पष्ट था। होठों का एक कोना मुड़ गया था। वह हास्य का व्यंग्य रूप था जो स्नेह की तूलिका से मुड़कर सहस्यमय बन जाता था, ऐसा कि बिना बोले सब कहलवा ले।
‘‘नहीं, मेरी बहरी भाभी !’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘फिर हम दोनों ने जाकर कुञ्ज में विश्राम किया।’’
मदिरा व्यस्तता दिखाकर भीतर चली गई। वह वसुदेव की पत्नी थी, अतः कहलाती माता थी। भद्रवाहा तो सुमुख गोप की स्त्री थी और उसका स्वभाव ही ठिठोली करने वाला था। माता के चले जाने पर भद्रवाहा ने चित्रगंधा को सुनाकर कहा, ‘‘देवर ! एक दिन मुझे भी उस कुञ्ज में ले चलेगा ?’’ फिर वह मुस्कराई। चित्रगंधा के गाल पर लाज की मार डोल उठी।
कृष्ण ने कहा, ‘‘क्यों भाभी ! सुमुख भ्रातर कहाँ गए ?’’

‘‘वे तो अब बूढ़े हुए,’’ भद्रवाहा ने कहा, ‘‘एक दिन गोपियाँ उनके पीछे भी डोलती थीं। अब तेरा समय आया है। रासी गोपियाँ तुझे चाहती हैं। तुझे देखना चाहती हैं। फिर मुझमें ही क्या दोष है ?’’
कृष्ण ने कहा, ‘‘यही तो मैं भी डर रहा हूँ।’’
‘‘क्यों ?’’ भद्रवाहा ने कहा।
चित्रगंधा ने देखा। कृष्ण कह उठा, ‘‘तुम्हीं तो कहती थीं कि भ्रातर सुमुख वृद्ध हो गए हैं। वे भी कभी अपना सम्मोहन डालते थे। तुम्हारा संग हुआ, वृद्ध हो गए। कहीं मैंने तुम्हारा संग कर लिया और मैं भी वृद्ध हो गया तो ?’’
चित्रगंधा ठठाकर हँसी। भद्रवाहा झेंपी। उसने चित्रगंधा का कान पकड़ कर कहा, ‘‘ढीठ !’’
चित्रगंधा ने कहा, ‘‘ले भाभी ! तूने ही तो पहले छेड़ा था। अब क्यों नहीं बोलती ?’’


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