Saturday 24 October 2015

महासमर 4 (धर्म)- नरेंद्र कोहली

भीम के हाथ उठाकर अपने पीछे आते सारे लोगों को रुकने का संकेत किया। 

रुकने की आज्ञा प्रचारित होती गई और गज, अश्व तथा रथ रुकते चले गये। 

‘‘भैया ! खांडवप्रस्थ सामने दिखाई दे रहा है।’’ भीम अपने हाथी से उतरकर युधिष्ठिर के रथ के पास आ गया, ‘‘आपकी आज्ञा हो तो यहीं शिविर स्थापित कर दिया जाए। यहाँ शिविरों तथा रसोई की व्यवस्था हो और हम लोग आस-पास का क्षेत्र देख आएँ।’’

‘‘देखने को है ही क्या ?’’ युधिष्ठिर के कुछ कहने से पहले ही नकुल बोला, ‘‘चारों ओर वन-ही-वन हैं। जहाँ वन नहीं हैं, वहाँ पथरीली पहाड़ियाँ हैं, जिन पर तृण भी नहीं उगता।’’

‘‘नहीं ! ऐसी बात नहीं होनी चाहिए।’’ युधिष्ठिर की वाणी आश्वस्त थी, ‘‘कौरवों की प्राचीन राजधानी है। पुरुरवा, आयु, नहुष तथा ययाति ने यहीं से शासन किया था। यहां हमारी प्राचीन प्रासाद है। उससे लगा खांडवप्रस्थ नगर है, जहाँ हमारी प्रजा निवास करती है।’’

‘‘मुझे तो यहाँ कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा।’’ भीम ने अपनी आँखों पर हथेली की छायी करते हुए दूर तक देखने का अभिनय किया।


‘‘महाराज ! यहाँ शिविर स्थापित करने का तो आदेश दे ही दीजिए।’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘आसपास कुछ दर्शनीय है या नहीं, इससे क्या अन्तर पड़ता है।’’

‘‘हाँ !’’ अर्जुन बोला, ‘‘प्रासाद है तो 

ठीक है, नहीं तो हमें बनाना है। नगर है तो उसका पुनरुद्धार करना है, नहीं है तो बसाना है। अब रहना तो यहीं है न। महाराज धृतराष्ट्र ने हमें जो राज्य और राजधानी दी है, उसका हम अपमान तो नहीं कर सकते !’’

‘‘अर्जुन ! तुम्हारी वाणी में पितृव्य के प्रति कटुता है...।’’

‘‘मेरे मन में तो उनके प्रति घृणा है।’’ भीम ने युधुष्ठिर की बात काट दी, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता कि आपके मन में उनके व्यवहार की कोई प्रतिक्रिया होती क्यों नहीं। उन्होंने हमारे विरुद्ध कौन-सा षड्यन्त्र नहीं रचा और तब भी आप चाहते हैं कि अर्जुन की वाणी में पितृव्य के लिए कटुता तक न आए। आप मनुष्य नहीं हैं क्या ?’’


‘‘ज्येष्ठ, मनुष्य तो हैं ही मध्यम ! किन्तु धर्म राज भी हैं। वे अकारण ही धर्मराज नहीं कहलाते।’’ कृष्ण का स्वर इस समय परिहास शून्य ही नहीं पर्याप्त गंभीर भी था, ‘‘उन्होंने अपने ‘स्व’ को जीत लिया। जिस मन में सर्वभूताय प्रेमरूपी ईश्वर होना चाहिए, उसमें वे घृणा को स्थान दें... केवल इसलिए, क्योंकि कुरुराज धृतराष्ट्र के मन में अपने भ्रातुष्पुत्रों के प्रति प्रेम नहीं है। यह तो वैसा ही हुआ कि एक व्यक्ति ने अपने घर में मल बर लिया है और वह मल यदा-कदा दूसरों पर फेंकता रहता है, इसलिए आप भी अपने घर में मल भर लें, ताकि आप भी अपनी सुविधानुसार उस पर मल फेंक सकें।’’

‘‘प्रकृति के नियमों के अनुसार स्वाभाविक तो यही है।’’ भीम ने उत्तर दिया।

‘‘किसी एक का स्वभाव ही तो मानव का धर्म नहीं है। धर्म तो प्रकृति का अतिक्रमण कर आत्मस्थ होकर ही सिद्ध होगा।’’ कृष्ण ने उत्तर दिया, ‘‘साधारण मनुष्य प्रकृति के नियमों का दास होता है मध्यम ! किन्तु असाधारण व्यक्ति का सारा उपक्रम उन नियमों का स्वामी बनने के प्रयत्न में है।’’ कृष्ण ने रुककर भीम को देखा, ‘‘अब तुम महाराज की ओर से शिविर स्थापित करने की घोषणा प्रचारित कर दो और चलो हमारे साथ। मैं तुम्हें तुम्हारा वह प्रासाद और नगर दिखाता हूँ।’’

‘‘तुम इस क्षेत्र से परिचित हो माधव ?’’ अर्जुन ने कुछ आश्चर्य से पूछा।

कृष्ण के चेहरे पर सम्मोहनपूर्ण मुस्कान उभरी, ‘‘धनंजय ! यह क्षेत्र चाहे कौरवों के राज्य के अन्तर्गत माना जाता है, किन्तु यह यमुना के तट पर, गंगा-तट पर नहीं। यमुना हमारी नही है। मथुरा, वृन्दावन, गोकुल... कुछ भी तो यहाँ से दूर नहीं है।’’


वे सब लोग कृष्ण के पीछे-पीछे चल रहे थे। अर्जुन, कृष्ण के सबसे अधिक निकट था। युधिष्ठिर, भीम, तथा बलराम उनके पीछे थे और इस प्रयत्न में थे कि कुंती और द्रौपदी भी उनके साथ-साथ चल सकें। नकुल और सहदेव सबके पीछे थे और खांडवप्रस्थ संबंधित अपनी जानकारी को लेकर विवादों में उलझे हुए थे।

झाड़ियों के बीच से बनी धुँधली पगडंडियों पर कृष्ण के पग बढ़ते जा रहे थे।...यह तो स्पष्ट ही था कि मनुष्य के चरण इन मार्गों पर पड़ते रहते हैं। नहीं तो इन पगडंडियों का अस्तित्व ही न होता। किन्तु, यहाँ न पथ थे, न राजपथ। यहाँ रथों का आवागमन नहीं हो सकता था। दस-दस अश्वों की पक्तियाँ साथ-साथ नहीं चल सकती थीं, यदि पांडवों को यहाँ रहना है तो उन्हें पथ और राजपथों का निर्माण करना होगा। भवनों, हवेलियों, अट्टालिकाओं और प्रासादों का निर्माण करना होगा। जब मनुष्य रहने लगेंगे तो उनकी आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए क्या नहीं बनाना पड़ता....जब यादव कुशस्थली पहुँचे थे, तो वहाँ क्या था ? यादवों ने भी तो द्वारका जैसे वैभव शाली नगर का निर्माण किया। प्रत्येक नगर को कोई- न-कोई राजा बसाता ही है, तो पांडव अपने लिए एक नया नगर नहीं बसा सकते


डाउनलोड करें- धर्म

4 comments:

  1. ThanX bro,,,,,,,,
    mujhe laga Aap ya to hamlogo se naraj ho gaye hain ya fir kahi vyast ho gaye hain,,,,hamare sare dost v yhi kah rahe the fir v hame ummid thi aap aayenge jarur,,,,dhanyavad aapka,,,,, samay nikal kar k iske baki k parts v jald se jald avail karwaye yahi vinti hai aapse,,,,

    ReplyDelete
  2. Thanks dude...
    Actually mai holiday ko hi thoda free ho pata hu ialiye thoda late ho jata hu par books update karunga jarur. Mere pass aprox 5000 books hai all type ki. Sari upload karunga dhire dhire.

    ReplyDelete
  3. Hi,
    Awesome work! Pls upload rest of the parts from part5 to part8. Thnx Bro. Great Job!

    ReplyDelete