‘‘नहीं मेहेर, उधर न जाओ।’’
दासी का वर्जन पाकर वह उदीयमान यौवना, चपला सहम उठी। बिजली सी यह विचारधारा उसके मानस में चमक उठी, ‘बकने भी दो, अपने ही भय से बुझी हुई इस दासी की लड़की को। यह जान क्या सकती है मेरे रूप के स्वप्नों को। सम्राट् का कोई निशेध नहीं है यहाँ पर। हम उनके राजभवन के बाहर हैं।’ उस सुन्दरी ने साहस एकत्र किया। एक अज्ञात आकांक्षा से खिंची हुई वह आगे बढ़ी। उसने दासी के अनुरोध की उपेक्षा कर दी।
सम्राट् अकबर के राजप्रासाद के सिंहद्वार के बाहर द्वारपाल की एक छोटी कुटिया थी। उसमें वह अपने परिवार के साथ रहता था। दासी तेहरान से नवागत मिर्जा की लड़की थी। वह संभ्रात पर आर्थिक संकटों में घिरा हुआ साहसी मनुष्य; अपने गिरि, वनों, मरु और सरिताओं को पार करता हुआ इतनी दूर भारतवर्ष में चला आया था, मुगल सम्राटों के उस विश्व राज्य की देश-देशांतर में फैली हुई कीर्ति को सुनकर। उसकी स्त्री का वियोग हो गया था। एक पुत्र और एक कन्या उसके साथ थे। दोनों की अवस्था विवाह के योग्य थी। मिर्जा ने फिर विवाह नहीं किया। अकबर की स्त्री से उसका पीहर का संबंध है।
निकट ही एक छोटे से सरोवर में अन्तःपुर के कुछ प्रतिपालित कपोत क्रीड़ा कर रहे हैं ! सरोवर के चारों ओर संगमर्मर के चबूतरे ओर सोपान पंक्तियाँ बनी हुई हैं। कुछ कपोत जल में स्नान कर रहे हैं और कुछ चबूतरों पर खेल रहे हैं। उस नवयुवती का मन उधर ही खिंचा हुआ था। उसने अपनी कल्पना में यह ठान लिया था कि एक दो कबूतर पकड़कर वह अवश्य ही अपने घर ले जावेगी, और उन्हें अपना सहचर बनावेगी वह अपने हृदय में कहने लगी-‘सम्राट् के हैं, तो क्या हुआ। अनगिनती यहीं पर हैं। भीतर राजभवन में और न जाने कितने होंगे। क्या कमी पड़ जायगी, यदि दो कबूतर मैं अपने साथ ले गई तो ! कौन देखता है ?’
परन्तु, देख रहा था युवराज सलीम। सिंहद्वार के परकोटे पर चढ़ा हुआ सलीम। लगभग पच्चीस-छब्बीस वर्ष की कच्ची आयु का वह राजकुमार, जिसके हृदय में उद्दाम यौवन की लालसाएँ अनेक सुप्त और अधिकांश जागती हुई थीं। वह देख रहा था, उस एक अपरिचित नारी को। प्रथम दर्शन ही में सलीम उसकी ओर बलात् आकृष्ट हो गया-‘कौन है यह ? एक-एक अंग मानो रूप की चरम आदर्श साँचे में ढला हुआ ! एक-एक चेष्टा मानो माधुरी का उद्गम स्रोत हृदय में गड़कर वहाँ गढ़ बना लेने वाला। इसकी छवि अलौकिक है। वेशभूषा से भी यह किसी संभ्रांत कुटुंब की जान पड़ती है, फिर यह हमारे राजभवन में क्यों नहीं आई ? पहले कब देखा मैंने इसे ? नहीं, आज ही, यहीं तो पहली बार है।’ सलीम परकोटे पर से उतरने लगा।
‘‘शिशु-अवस्था में ही माता मर गई इसकी।’’ दासी ने कहा।
‘‘भाई की आयु कितने वर्ष की है ?’’ द्वारपाल की स्त्री ने पूछा।
‘‘होगा कोई इक्कीस-बाईस साल का, इससे चार-पाँच वर्ष बड़ा।’’
‘‘बड़ी सुन्दर, रूप और लक्षणों से युक्त है यह कन्या।’’
‘‘अभी देखा ही क्या है तुमने इसे। जिस कौशल से यह समस्त गृहस्थ का काम करती है, मैं तो देख-देखकर विस्मत मूक हो जाती हूँ।’’
‘‘गृहस्थ ही क्या हुआ ? पिता, पुत्र और लड़की।’’
‘‘काम तो हुए ही सब। खाना-पीना, स्वच्छता सजावट धरना-ढकना स्नान श्रृंगार, साधु अतिथि, सभी तो हुए ही। छोटा बालक नहीं है एक घर में। दासी केवल एक मैं हूँ, सब कुछ यह अपने हाथ से करती है। किसे देखा इसने ? किसने सिखाया इसे यह सब ?’’
‘‘विवाह योग्य तो हो गई है। कहीं चल रही है बातचीत ?’’
‘‘कहाँ से, अभी तो आए हैं। विदेश ही तो ठहरा यह इनका। जाति कुल का नहीं कोई यहाँ अपना, जान-पहचान नहीं किसी से। बड़ी कठिनता से अभी पिता को एक नौकरी मिली है टकसाल में। वृत्ति की विषम चिंता से अभी छुटकारा पाया है, अब कन्या के विवाह की चेष्टा होगी।’’
‘‘राजा के अन्तःपुर के योग्य है यह।’’
‘‘कोई संदेह नहीं इसमें, इसके पिता ईरान के राजा के प्रमुख सरदारों में से थे। दुर्भाग्यवश राजा के अनुग्रह से च्युत हो बैठे। जीविका से तो हाथ धोने ही पड़े। रातोंरात जीवन बचाने के लिए घर छोड़ प्रवास की शरण लेनी पड़ी। गर्व की गंध भी नहीं है इसमें दासी नहीं सहेली का सा व्यवहार करती है मेरे साथ। भीतर-बाहर एक सा कोई कृत्रिमता है नहीं उस व्यवहार में।’’
‘‘घर में अकेले ऊब उठती होगी बेचारी। पास-पड़ोस है कोई ?’’
‘‘नहीं, गृहस्थी के काम में से जो समय बचा लेती है, उसे पुस्तक पाठ और कला कौशल में बिताती है, इसके पिता कहते हैं, यह भाई से अवस्था में कम है, विद्या में नहीं।’’
मेहेर बड़ी सतर्कता से आगे बढ़ी। उसने अपने दोनों हाथों में दो कबूतर पकड़ लिए।
इस समय पीछे से किसी ने कहा-‘‘दृढ़ता से पकड़ लो इन्हें, कहीं उड़ न जावें।’’
मेहेर ने लौटकर देखा। एक परम कांति और श्री-सम्पन्न नवयुवक विमुग्ध दृष्टि से उसे निहार रहा है। उसके कपोल रक्तिम हो उठे, नेत्र विनत। आबद्ध कपोतों का बाहुपाश शिथिल होने लगा।